Monday 8 January 2018

बैत अल मुक़द्दस और मस्जिदे अक़्सा की तारीख़

बैत अल मुक़द्दस और मस्जिदे अक़्सा की तारीख़

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तसानीफ़: डॉ. मौलाना मोहम्मद हुसैन मुशाहिद रज़वी
तर्जुमा: फ़कीर ए क़ादरी मोहम्मद फ़ैज़ान वारसी
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बैत-अल मुक़द्दस
यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों तीनों के नज़दीक
मुकद्दस है। यहाँ हज़रत सुलेमान (अलैहिस्सलाम) का
त़ामीरकर्दा मा-अब्द है जो बनी इस्राईल के नबियों का
क़िब्ला था और इसी शहर से उन की तारीख़ वाबस्ता
है, यही शहर हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) की पैदाइश
का मक़ाम है और यही उन की तबलीग़ का मरकज़
था। मुसलमान तब्दीले क़िब्ला से क़ब्ल (पहले)
बैत अल मुक़द्दस की जानिब रुख़ करके नमाज़
अदा करते थे।
बैत-अल मुक़द्दस पहाड़ियों पर आबाद है और उन्हीं
में से एक पहाड़ी का नाम कोहे सय्हून है जिस पर
बैत अल मुक़द्दस और मस्जिदे अक़सा वाक़ेअ है।
कोहे सय्हून के नाम पर ही यहूदियों की आलमी तहरीक
सय्हूनियत क़ायम की गई ।
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क़दीम तारीख़
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सब से पहले हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) और आप
के भतीजे हज़रत लूत (अलैहिस्सलाम) ने ईराक़ से बैत
अल मुक़द्दस की तरफ हिजरत की थी।
620 ई. मे हुज़ूर नबी ए करीम (सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम)
जिब्राईल ए अमीन की रहनुमाई में मक्का से बैत अल मुक़द्दस
पहुंचे, फ़िर वहाँ से म़ेराज़े ए आसमानी के लिए तशरीफ़ ले
गए।
हज़रत याक़ूब (अलैहिस्सलाम) ने वही ए इलाही के
मुताबिक़ मस्जिदे बैत अल मुक़द्दस की बुनियाद डाली
और इसी वजह से बैत अल मुक़द्दस आबाद हुआ।
फ़िर अरसा दराज़ के बाद हज़रत सुलेमान (अलैहिस्सलाम)
(961 क़ब्ले मूसा) के हुक्म से मस्जिद और शहर की
तामीर व तजदीद की गई। इसीलिए यहूदी बैअत अल
मुक़द्दस को हय्कले सुलेमानी कहते हैं।
हय्कले सुलेमानी और बैत अल मुक़द्दस को 586 कब्ले मूसा
मे शाहे बाबुल (ईराक़) बख़्ते नसर नें शहीद कर दिया था
और एक लाख़ यहूदियों को ग़ुलाम बना कर अपने साथ ईराक ले गया, बैत अल मुक़द्दस के उस दौर ए बरबादी मे
हज़रत उज़ैर (अलैहिस्सलाम) का वहां से गुज़र हुआ, आप ने
इस शहर को वीरान पाया तो त़अज्जुब ज़ाहिर किया कि क्या
ये शहर फ़िर कभी आबाद होगा? इस पर अल्लाह तआला ने
आप को मौत दे दी, और जब आप सौ साल बाद उठाए गए
तो ये देख़कर हैरान हुए कि बैत अल मुक़द्दस  फ़ि आबाद
व रौनक अफ़रोज़ हो चुका है।
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बख़्ते नसर के बाद 539 कब्ले मूसा मे शहनशाह फ़ारस
रोश कबीर (साइरस ए आज़म)ए ने बाबुल फ़तेह कर के बनी
इस्राईल को फ़िलस्तीन वापस जाने की इजाज़त दे दी। यहूदी
हुकमरान जिसे हैरूद ए आज़म कहा जाता था, उस के ज़माने
में यहूदियों नें बैत अल मुक़द्दस शहर और हय्कले सुलेमानी
फ़िर तामीर किया। यरूशलम पर दूसरी तबाही रोमन्स के दौर
में हुई रोम के जरनल टाइटस ने 70 ई. में यरूशलम और
हय्कले सुलेमानी दोनो को बरबाद कर दिया।
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वहीं यरूशलम की पिछली तारीख़ में
137 कब्ले मूसा में रोमी शहनशाह हैडरेन ने तमाम यहूदियों
को बैत अल मुक़द्दस से जिला वतन कर दिया।
चौथी सदी ईसवी (सन् 400ई. के आसपास) में रोमन्स ने
ईसाइयत क़ुबूल कर ली और बैत अल मुक़द्दस में गिरजे
तामीर किये।
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मुस्लिम तारीख़
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जब नबी ए करीम सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम दौरान ए
मेअराज बैत अल मुक़द्दस पहुंचे (2 हिजरी मुताबिक 624 ईसवीं) तब तक बैत अल मुक़द्दस ही मुसलमानों का किब्ला था
हत्ता कि बाद में हुक्म ए इलाही से काबा शरीफ़ को क़िब्ला करार
दिया गया ।
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17 हिजरी (639 ई.) में अहद ए फ़ारूक़ी में ईसाइयों से एक
मोहिदे (दस्तावेज़ी कार्यवाही) के तहत बैत अल मुक़द्दस पर
मुसलमानों का क़ब्ज़ा हो गया, ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक के अहद
में यहाँ मस्जिदे अक़्सा की तामीर अमल में आई और सुख़रा ए
म़ेअराज पर क़िब्तुस्सुख़रा बनाया गया ।
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1099 ई. में पहली सलीबी जंग के मौक़े पर यूरोपी सलीबियों नें
बैअत अल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा कर के 70000 मुसलमानों को
शहीद कर दिया। 1187 ई. में सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने
बैत अल मुक़द्दस को ईसाइयों के क़ब्ज़े से छुड़ाया।
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जदीद तारीख़ और यहूदी क़ब्ज़ा
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पहली जंगे अज़ीम (प्रथम विश्व युद्ध), दिसम्बर 1917 ई. के दौरान
अंग्रेज़ों ने बैत-अल मुकद्दस और फ़िलस्तीन पर क़ब्ज़ा कर के
यहूदियों को आबाद होने की आम इजाज़त दे दी, यहूदो नसारा
 की साज़िश के तहत नवम्बर 1947 ई. में अक़वाम ए मुताहिद्दा की
जनरल असेम्बली ने धान्धली से काम लेते हुए, फ़िलस्तीन को अरबों और यहूदियों में तक़सीम कर दिया,
और जब 14 मई 1948 ई. को यहूदियों ने इस्राईल के क़याम का
ऐलान कर दिया तो पहली अरब इस्राईल जंग छिड़ गई।
इस जंग के नतीजे में इस्राईली, फ़िलस्तीन के 78% हिस्से पर
क़ाबिज़ हो गए, ताहम मशरिकी यरूशलम (बैत अल मुक़द्दस)
और "ग़ुर्बे अर्दन" के इलाक़े, अर्दन के क़ब्ज़े में आ गए।
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तीसरी अरब इस्राईली जंग (जून 1967 ई.) में इस्राईलियों ने बाक़ी
हिस्से पर भी कब्ज़ा जमा लिया। यूं मुसलमानों का क़िब्ला ए अव्वल
हनूज़ यहूदियों के क़ब्ज़े में है। यहूदियों के ब-क़ौल 70 ई. की तबाही
से हय्कले सुलेमानी की एक दीवार का कुछ हिस्सा बचा हुआ है
जहाँ दो हज़ार साल से यहूदी ज़ायरीन आकर रोया करते थे इस
लिए इसे "दीवारे गिरिया" कहा जाता है।
अब यहूदी मस्जिदे अक़सा को गिरा कर हय्कल तामीर करने के
मन्सूबे बनाते रहते हैं। इस्राईल ने बैत अल मुक़द्दस को अपना
दारुल हुकूमत भी बना रखा है।
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मस्जिद ए अक़्सा
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बैत अल मुक़द्दस, ख़ाना ए काबा और मस्जिद ए नबवी शरीफ़ के बाद चौथा मुक़द्दस तरीन मुक़ाम है। मक़ामी मुसलमान इसको
मस्जिद ए अक़्सा या हरम ए अक़दस शरीफ़ कहते हैं, ये मशरिकी
जानिब वाक़ेअ है जिस हिस्से पर इस्राईल का क़ब्ज़ा है।
ये यरूशलम की सब से बड़ी मस्जिद है, जिस में 5000 नमाज़ियों
की गुन्जाइश है, जबकि मस्जिद के सहन में भी हज़ारो मुसलमान
नमाज़ अदा कर सकते हैं।
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2000 ई. में "अल अक़्सा इन्तिफ़ाज़ा" के आग़ाज़ के बाद से यहाँ
गैर मुस्लिमों का दाख़िला मम्नूअ (मना) है।
हज़ूर सरवरे आलम सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम
दौरान ए मेअराज यहाँ पहुँचे और मस्जिद ए अक़्सा में तमाम
अम्बिया ए कराम की ईमामत फ़रमाई और बाद में सातों आसमान
की सैर के लिए रवाना हुए।
मेअराज में नमाज़ की फ़रज़ीयत 16 से 17 माह तक मुसलमान
बैत अल मुक़द्दस की जानिब रुख़ करके नमाज़ अदा करते रहे,
फ़िर ताहवील ए काबा का हुक्म आने के बाद मुसलमानों का क़िब्ला
ख़ाना ए काबा हो गया।
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मुस्लिम तामीरात
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जब हज़रत उमर फ़ारूक़ रदियल्लाहो अन्ह के दौर में मुसलमानों
नें बैत अल मुक़द्दस फ़तेह कर लिया तो आप ने शहर से रवानगी के वक़्त सुख़रा और बुराक़ बान्धने की जगह के करीब मस्जिद तामीर करने का हुक़्म दिया जहाँ आप ने अपने हमराह अस्हाब के साथ
नमाज़ अदा की, यही मस्जिद बाद में मस्जिद ए अक़्सा कहलाई
क्योंकि क़ुरान मजीद की सूरह बनी इस्राईल के आग़ाज़ में इस
मक़ाम को मस्जिद ए अक़्सा कहा गया है।
उस दौर में बहुत से सहाबा ने तबलीग़े इस्लाम और इशाअत ए
दीन की ख़ातिर बैत अल मुक़द्दस में इकामत इख़्तियार की।
ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक बिन मरवान ने मस्जिद ए अक़्सा की
तामीर शुरू कराई और ख़लीफ़ा वलीद बिन अब्दुल मलिक
ने उस की तामीर मुक़म्मल की और उस की तज़ईन ओ आराइश
की। अब्बासी ख़लीफ़ा अबू जअफ़र मन्सूर ने भी इस मस्जिद की
मरम्मत कराई। पहली सलीबी जंग के बाद जब ईसाइयों का बैत अल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा हो गया तो उन्होंने मस्जिद ए अक़्सा में
बहुत रद्दो बदल किया, उन्होने मस्जिद में रहने के लिए कई कमरे बना लिए और इस का नाम मा-अब्द ए सुलेमानी रख़ा, और कई दीगर ईमारतों का इज़ाफ़ा किया जो ब तौर जाए-ज़रूरत और
अनाज की कोठियों के इस्तेमाल होती थीं। ईसाइयों ने मस्जिद के
अन्दर और मस्जिद के साथ साथ गिरजा भी बना लिया।
सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने 1187 ई. में फ़तेह बैत अल मुक़द्दस के बाद मस्जिद ए अक़्सा को ईसाइयों के तमाम निशानात से पाक किया और मेहराब और मस्जिद को दोबारा तामीर कराया।
बाअज़ लोग सिर्फ़ उस जगह को जहाँ फ़ारूक़ ए आज़म अलैह रहमाँ ने नमाज़ अदा की थी मस्जिद ए अक़्सा समझते हैं बल्कि
ये सारी मस्जिद ए अक़्सा है, लेकिन हाँ उस जगह पर जहाँ फ़ारूक़े
आज़म ने नमाज़ अदा की है वहाँ नमाज़ पढ़ना बाक़ी मस्जिद में
नमाज़ पढ़ने से अफ़ज़ल है।
21 अगस्त 1969 ई. को एक ऑस्ट्रेलियाई यहूदी डैनिस माइकल
र्यूहन ने क़िब्ला ए अव्वल मे आग लगा दी जिस से मस्जिद ए अक़्सा
तीन घन्टे तक आग के हवाले रही और जुनूब मश्रिकी (दक्षिण पूर्व)
जानिब ऐन क़िब्ला की तरफ़ का बड़ा हिस्सा गिर पड़ा, मेहराब
में मौजूद मिम्बर भी नज़रे आतिश हो गया जिसे सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने फ़तेह बैत अल मुक़द्दस के बाद नसब किया था।
सुल्तान ने किब्ला ए अव्वल की आज़ादी के लिए तकरीबन
16 जंगें लड़ीं और हर जंग के दौरान उस मिम्बर को अपने
साथ रख़ते थे ता कि फ़तेह होने के बाद उसे मस्जिद में नस्ब
करेंगे।
लेकिन 1969 ई. में हुए उस अलमनाक वाक्ये के बाद
ख़्वाब ए ग़फ़लत में डूबी हुई उम्मत ए मुस्लिमा की आँख़ एक
लम्हे के लिए बेदार हुई तकरीबन एक सप्ताह के बाद इस्लामी
ममालिक ने "मोतमर आलम ए इस्लामी"(ओ. आई. सी) क़ायम की।
ताहम 1973 ई. मे लाहौर मे होने वाले दूसरे इजलास के बाद
56 इस्लामी ममालिक (देशों) की ये तन्ज़ीम ग़ैर फ़आल हो गई।
यहूदी इस मस्जिद को हय्कले सुलैमानी की जगह तामीरकर्दा
इबादतगाह समझते हैं और इसे गिरा कर दोबारा हय्कले सुलेमानी
तामीर करना चाहते हैं, हालांकि वो कभी भी ब ज़रिया ए दलील इस को साबित नही कर सके कि हय्कले सुलेमानी यहीं तामीर था ।

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