Thursday 6 July 2017

Sabak

सबक


मदीना में एक हमाम (गुसुलखाना) था। जिसमें
मुर्दा औरतों को नहलाया जाता था, और
उनकी तज्हीज़-ओ-तक्फ़ीन की जाती थी। एक
मर्तबा उसमें एक ख़ातून जिसका इंतिक़ाल हो
चुका था को नहलाने के लिए लाया गया।
उसको ग़ुस्ल दिया जा रहा था, कि एक औरत
ने इस मुर्दा ख़ातून को बुरा भला कहते हुए
कहा: तू बदकार है और उसके कमर से नीचे एक थप्पड़
मारा, लेकिन इस बुरा भला कहने वाली का हाथ और
मुर्दा औरत का हाथ
चिपक गया, औरतों ने
बहुत कोशिश और तदबीर की लेकिन हाथ अलग
नहीं हुआ। बात पूरे शहर में फैल गई। क्योंकि
मुआमला ही अजीब था, एक ज़िंदा औरत का
हाथ एक मुर्दा औरत के हाथ से चिपका हुआ, है
अब उसको किस तदबीर से अलग किया जाए,
मुर्दा को दफ़न भी करना ज़रूरी है, इसके
लवाहिक़ीन अलग परेशान हो गये। मुआमला
शहर के वाली और हाकिम तक पहुंच गया,
उन्होंने फुक़हा से मश्वरा किया, बाअज़ ने
राय दी कि इस ज़िंदा औरत का हाथ काट
कर अलग किया जाए । कुछ की राय ये बनी
कि मुर्दा औरत के जिस हिस्सा से इस ज़िंदा
ख़ातून का हाथ चिपका है इतने हिस्सा को
काट लिया जाये। कुछ का कहना था कि
मुर्दा की बेइज़्ज़ती नहीं की जा सकती। कुछ
का कहना था कि ज़िंदा औरत का हाथ
काटना उसको पूरी ज़िंदगी के लिए माज़ूर
बना देगा।
शहर का वाली और हाकिम इमाम मालिक
रहमतुल्लाह अलैह का क़दरशनास और उनके
तफ़क्कोह और फ़हम-ओ-फ़रासत का क़ाइल था।
उसने कहा कि मैं जब तक इस बारे में इमाम
मालिक से बात करके उनकी राय ना लूँ तब तक
मैं कोई फ़ैसला नहीं दे सकता। इमाम मालिक
रहमतुल्लाह अलैह के सामने पूरा मुआमला पेश
किया गया। तो उन्होंने सुनकर फ़रमाया:
ना ज़िंदा ख़ातून का हाथ काटा जाये, और
ना मुर्दा औरत के जिस्म का कोई हिस्सा
अलग किया जाए। मेरी समझ में ये बात आती है
कि मुर्दा औरत पर उस ज़िंदा ख़ातून ने जो
इल्ज़ाम लगाया, है वो उसका बदला और
क़िसास तलब कर रही है, लिहाज़ा इल्ज़ाम
लगाने वाली औरत को शरई हद से गुज़ारा
जाये। चुनांचे शरई हद जो तोहमत लगाने की है
यानी अस्सी (80) कोड़े।
कोड़े मारने शुरू किए गए, एक दो, दस बीस,
पच्चास, साठ, सत्तर बल्कि उनासी (79)
कोड़ों तक इस ज़िंदा ख़ातून का हाथ मुर्दा
औरत के जिस्म से
चिपका रहा। ज्यूँ ही आख़िरी कोड़ा
मारा गया, उसका हाथ मुर्दा औरत के
जिस्म से अलग हो गया।।


(बिस्तान-उल-मुहद्देसीन शाह अब्दुल अज़ीज़
देह्लवी रहमतुल्लाह अलैह, सफ़ा: 25,
2: अनवारुल मसालिक, मुहम्मद बिन अलवी अल
मालिकी अल हसनी: 244,
3: अल्लामा शरक़ावी, अस सही शरह अत
तदरीज: 343).

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