Saturday 21 October 2017

MASLAK E AALA HAZRAT KYUN?


मसलके आलाहज़रत क्यों




इस मसले पर बदमज़हब मुनाफ़िक़ के साथ साथ कुछ नाम निहाद सुन्नीजो कि आलाहज़रत अज़ीमुल बरक़त रज़ियल्लाहु तआला अन्हु सेबुग़्ज़ो हसद रखते हैं वो भी ऐतराज़ करते हैं कि मसलक तो 4 थे फिरये पांचवा मसलक कहां से आ गया,तो चलिए देखते हैं कि मसलके आलाहज़रत कासही माना क्या है और आलाहज़रत अज़ीमुल बरक़त नेऐसी कौन सी दीन की खिदमत करदी जो मज़हबे अहले सुन्नत वल जमाअत को मसलके आलाहज़रतकहा जाने लगा,सब से पहले तो मसलक का माना देखते हैंमसलक - सय्यद मुहम्मद मुर्तुज़ा हुसैनी की ताजुल उरुसमें,इब्ने मंज़ूर की लिसानुल अरब में,व दीगर लुग़ात मेंभी मसलक का माने राह-रास्ता-तरीक़ा के होते हैं तो मसलकेआलाहज़रत यानि आलाहज़रत का रास्ता ना कि कोई नया मज़हबमज़हब - रद्दुल मुख़्तार व तफ़सीरे जलालैन व तफ़सीरेसावी की रिवायतों से साफ़ ज़ाहिर है कि अहले सुन्नत के 4इमामों के मज़हब को मज़हबे हनफ़ी,मज़हबे शाफई, मज़हबेमालिकी व मज़हबे हम्बली कहा जाता है,मसलकनहीं कहा जाता हिंदुस्तान के कुछ कम इल्म आलिम इस्लाम कोमज़हब समझते हैं हालांकि इस्लाम कोई मज़हब नहीं बल्किदीन है,जिस के तहत कई मज़हब हैं,ये कुछ लोगों कीकम इल्मी है कि कुछ का कुछ कर दिया हालांकि उनकी इसकम इल्मी से अलफ़ाज़ के माने नहीं बदल जायेंगे दूसरा येकि ऐतराज़ करने वाला अकसर युं ऐतराज़ करता है कि आम आदमीबिलकुल खामोश हो जाया करता है जैसे कि हुज़ूर ग़ौसे पाक तो वालियों केवली हैं बल्कि आपका लक़ब ही मुहिउद्दीनयानि दीन को ज़िंदा करने वाला है तो मसलके ग़ौसे आज़म क्योंनहीं कहा जाता,सरकार ग़रीब नवाज़ ने किस क़दरदीन की तब्लीग फरमाई कितने काफ़िरों को दायरेइस्लाम में दाख़िल किया तो मसलके ग़रीब नवाज़ क्यों नहींकहा जाता,तो इसका सीधा सा जवाब तो यही है कि हमको नातो मसलके ग़ौसे आज़म कहने में दिक़्क़त है नाहि मसलके ग़रीब नवाज़कहने में,किसी बात का चर्चा ना करना उसके इंकार कीदलील नहीं हो सकती,इसको युं समझिए किहमको बहुत सारी ऐसी बातें पता होती है जो किसही है,मगर अक्सर हम उसमें से बहुत कुछ बयान करते हैं औरबहुत कुछ कभी बयान नहीं करते या नहींकर पाते,तो किसी बात का बयान न करना उसका इंकार करना तोनहीं माना जाएगा,बस उसी तरह यहां समझलीजिए कि अगर हमने मसलके ग़ौसे आज़म ना कहा या मसलकेग़रीब नवाज़ ना कहा तो ना कहना इंकार तो नहीं है,जिसकोकहना है कहे,ऐतराज़ तो तब होता कि जब हम उसका इंकार करते,जैसा कि कुछलोग मसलके आलाहज़रत कहने पर ऐतराज़ करते हैं,और ये कोईइल्मी लिहाज़ से नहीं कहते बल्कि सिर्फ और सिर्फआलाहज़रत से दुश्मनी की बिना पर कहते हैं माज़अल्लाहअब आईये देखते हैं कि आलाहज़रत की खिदमाते दीन क्यारही,आलाहज़रत अज़ीमुल बरक़त ने कोई ऐसीबात की तालीम नहीं दीजिसकी अस्ल शरह में मौजूद ना हो,बल्कि उन उमूर कीतरफ से लोग ग़ाफ़िल हो चुके थे,जैसा कि! आपने फरमाया कि क़ुरान की हर आयत पर ईमान लानाज़रूरी है ये नहीं हो सकता कि कुछ पर ईमान लाये औरकुछ का इंकार करदे,जैसा कि अक्सर वहाबिया करते हैं! आपने ने क़ुरान का तर्जुमा करते वक़्त हुज़ूर की अज़मत को सामनेरखा जैसा कि ﻭﻭﺟﺪﻙ ﺿﺎﻻ का तर्जुमा आपने वारिफ़्तह किया गुमराह और भटकाहुआ ना किया,जैसा कि वहाबियों का तर्जुमा देखा जा सकता है! आपने फ़रमाया कि मुज्तहिद के नज़दीक अमल के लिएहदीस के सही होने का मफ़हूम और है औरमुहद्देसीन के नज़दीक और,इस मसले पर अवाम तो अवामउलमा तक ग़ाफिल थे! आपने फ़रमाया कि हदीसे ज़ईफ़ फ़ज़ाइले आमाल में मोअतबर है,मगरवहाबिया ऐसा ज़ाहिर करते हैं कि हदीसे ज़ईफ़ ज़ईफ़ ना होकर माज़अल्लाह जैसे गढ़ी हुई हो! आपने बहुत सी ऐसी हदीसों को ज़िक्रकरके फ़रमाया कि इन पर अमल करना ना तो फ़र्ज़ है ना वाजिब ना सुन्नत,मगरअमल करने में फ़ायदा है! आपने क़ौले राजेह पर फतवा देते हुए फ़रमाया कि हनफियों के यहां रुकू के बाददुआए क़ुनूत पढ़ने का कोई महल ही नहीं है! आपने फ़रमाया कि मस्जिद के अंदर अज़ान देना मकरूह है! आपने फ़रमाया कि दीनी कामों में काफिर से मदद लेनाहरगिज़ जायज़ नहीं है,और उनसे तोहफा लेने में फरमाते हैं कि अगरग़ालिब ग़ुमान है कि तोहफा क़ुबूल करने से उसके दिल में इस्लाम कीअज़मत बढ़ेगी तो क़ुबूल करे अगर ऐसा नहीं है और नाक़ुबूल करने से वो अपने मज़हब से बेज़ार हो जाएगा तो हरगिज़ क़ुबूल ना करे! बहुत से ऐसे मसायल थे जिन्हें लोगों ने बिलकुल छोड़ दिया था जैसे कि कलमएशहादत पर अंगूठा चूमना या अज़ाने सानी मस्जिद के अंदर देना,इसपरआपने रहनुमाई फरमाई! बड़ी बड़ी किताबों में भी जिन मसलोंकी तफ़सील मौजूद ना थी उन्हें आपने उसेइरशाद फ़रमाया मसलन नाबालिग बच्चे के हाथों से भरे हुए पानी परमुख़्तलिफ़ हुक्म है,जिसकी तफ़सील यहां दुश्वार है! अल्लाह व रसूल व मलाइका व औलियाए इकराम की अहानत से दूररहने की तालीम दी,और उनकीबारगाह का अदब सिखाया,और उनके दुश्मनो मसलन वहाबी,देवबंदी,क़ादियानी,ख़ारजी,राफजी,अहले हदीस,जमाते इस्लामी व दीगर बदमज़हबोंसे बिलकुल दूर रहने का हुक्म फ़रमाया! तमाम फराइज़ो वाजिबातो सुन्नतों को उनके वक़्तों पर अदा करने कीहमेशा तालीम देते रहे और कितने ही मुनकिराते शरईया परआपने सैकड़ों किताबें लिख डाली,आपकी तमाम किताबोंकी तादाद 1300 से भी ज़्यादा हैइसी तरह और भी उमूर हैं जिनसे ये साफ़ ज़ाहिर होता हैकि आलाहज़रत की तालीम अस्ल शरह कीही तालीम है,ख्वाजा ग़रीब नवाज़की तबलीग़े दीन से किसी को इंकारनहीं है मगर उसी तरह आलाहज़रत कीभी खिदमात का इंकार नहीं किया जा सकता,चलते चलतेअरब के शेखुस शुयूख हज़रत अल्लामा सैय्यद अलवी बिन अब्बासहसनी मालिकी मक्की क़ुद्देसु सिर्रहु का येक़ौल सुन लीजिए,आप फरमाते हैं कि* जब तुम्हारे पास हिंदुस्तानी हाजियों में से कोई शख्स आये तो उसकेसामने "शेख अहमद रज़ा" का ज़िक्र करके देखना कि अगर वो खुश होता है तोसमझ लेना कि वो सुन्नी है और अगर उसके चेहरे पर कदूरतझलकी तो फिर वो बिदअती गुमराह होगा ये क़ौलकिसी बरैलवी का नहीं है कि कोई कहदे किअपने उल्मा की तारीफ़ में कह दिया बल्कि ये हरमैनशरीफ़ैन के आलिम का क़ौल है,और क्यों है,इसलिए है कि जबहिंदुस्तान में मुनाफिकों के बड़े बड़े गुरु घंटाल मसलन इसमाईलदेहलवी,अशरफ अली थानवी,रशीदअहमद गंगोही,खलील अहमद अम्बेठी,हुसैन अहमद टांडवी,क़ासिम नानोतवी वग़ैरह के कुफ्रियाअक़ायद से लोगों के ईमान की धज्जियां उड़ाई जा रहीथी तो ऐसे में बरेली से एक तूफ़ान उठा जिसका नाम"अहमद रज़ा खान" था और उस तूफ़ान में पूरी मुनाफ़िक़त तहस नहसहो गयी,और उन्ही के रास्ते व तरीक़े कोउल्माये अरबो अजम ने दीनो सुन्नियत की पहचान बनालिया,अब अगर दुनिया के किसी कोने में भी कोई सलाम पढ़ताहुआ नज़र आता है तो यही कहा जाता है कि बरैलवी हैकोई उसे अजमेरी या कलियरी नहीं कहता,अगरचे रहने वाला अजमेर का,कलियर का, रुड़की का,बदायूं का,मारहरा का होहत्ता कि लन्दन अमेरिका जापान का हो अगर सुन्नी है तोबरैलवी कहलायेगा,क्योंकि अजमेर,कलियर,रुड़की,बदायूं,मारहरा या दुनिया के किसी भी ख़ानक़ाहकी अगर आज बक़ा है तो सिर्फ और सिर्फ मेरे आलाहज़रतकी देन है,जिस तरह पैदा करने वाले का एहसान होता हैउसी तरह जान बचाने वाले का भी ऐहसान होता है,तो अगरये ईमान ख्वाजा ग़रीब नवाज़ की देन है तो इस ईमान कोबचाने वाले आलाहज़रत अज़ीमुल बरक़त हैं,और जो किसीका एहसान ना माने तो वो एहसान फरामोश कहलाता हैआजके इस पुर फितन दौर में जबकि सुन्नी कहने कहलाने वालेही कुछ नाम निहाद उल्मा व अवाम गुमराही के गढ़े में गिरेहुए हैं तो ज़रूरत है कि अपने आपको मज़हबे अहले सुन्नत वल जमाअतकी सही और मुस्तनद पहचान यानि मसलके आलाहज़रतसे जोड़े रहें कि यही आपके ईमान की ज़मानत है जैसा किहदीसे पाक में आता है हुज़ूर फरमाते हैंमेरी उम्मत कभी गुमराही पर जमा नहोगी जब तुम इख़्तिलाफ़ देखो तो बड़ी जमात को लाज़िमपकड़ोइब्ने माजा,सफह 283मेरी उम्मत का 1 गिरोह क़यामत तक हक़ पर रहेगा और दुश्मनउसका कुछ न बिगाड़ सकेंगेबुखारी शरीफ,जिल्द 1,सफह 61अगर चे ये हदीसें सवादे आज़म यानि अहले सुन्नत वल जमाअतकी ताईद में हैं मगर चुंकि अब अहले सुन्नत वल जमाअत के अंदरभी इख़्तिलाफ़ पाया जा रहा है तो इसी हदीसपर अमल करते हुए बड़ी जमाअत यानि मसलके आलाहज़रत को लाज़िमपकड़ो कि इसी में ईमान की आफियतो भलाई है,औरआलाहज़रत अज़ीमुल बरक़त की ये खिदमतइतनी बड़ी थी कि रब ने अपने दीनकी पहचान ही उनके नाम से करदी,मसलकेआलाहजरत की ये बुलन्दी इंसानों की तरफ़ सेनहीं बल्कि खुदा की तरफ़ से है,इसी लिये तोये ग़ुलाम अर्ज़ करता हैरब ने दुनिया को अहमद रज़ा दे दियादीने हक़ का हमे रहनुमा दे दियाउनकी ख़िदमत का उनको सिला दे दियाअहले सुन्नत को नामे रज़ा दे दियातो मसलके आलाहज़रत पे लाखो सलाममसलके आलाहज़रत पे लाखो सलामये बहस जांनशीने हुज़ूर मुजाहिदे मिल्लत हज़रत अल्लामा मौलानामुफ्ती मुहम्मद "आशिक़ुर्रहमान" साहब क़िब्लाहबीबी मद्दा ज़िल्लहुल आली के रिसाले"मसलके आलाहज़रत यूं" से लिखा गया है जिन हज़रात को इस मसले पर इससेज़्यादा तफ़सील की दरकार हो तो वो अस्ल रिसालेकी तरफ़ रुजू करें ।।




#जनाब मुज़म्मिल तजम्मुल हुसैन घौरी साहब की पोस्ट से

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