Thursday 20 February 2020

Naat e Paak

بسم اللہ الرحمٰن الرحیم 

Naat E Paak



Dayar e data se hokar jo mushk boo aaye

saba ko chahiye us k qadam ko choom aaye.

Mazar e data pe bat ta hai rat din sadqa

wahan se daste talab ho k surkhooro aaye.

Yeh khawab hai k ghulamon main tere shamil hun

so ganj bakhs yeh tabeer hoo bahoo aaye.

yeh manqabat dar e data pe kaise pohchaun

na khush bayan hu na andaz e arzoo aaye.

Mile woh shama k irfan o agahi chamke

har aik tare nafas se sada e hoo aaye.

Tuesday 27 August 2019

दीने इस्लाम की एक अज़ीम ख़ातून मलिका ज़ुबैदा बिन्ते जाफ़र


हारून रशीद की बीवी मलिका ज़ुबैदा बिन्त जाफ़र, 
फरीज़ा ए हज की अदाएगी के लिए मक्का मुकर्रमा आईं।
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उन्होंने जब अहले मक्का और हुज्जाजे किराम को
पानी की दुश्वारी और मुश्किलात में मुब्तिला देखा
तो उन्हे सख्त अफसोस हुआ ।
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चुनांचे उन्होंने अपने अख़राजात से एक अज़ीमुश्शान नहर खोदने का हुक्म देकर एक ऐसा फक़ीदुल मिसाल कारनामा अंजाम दिया जो रहती दुनियां तक याद रहेगा ।
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मलिका ज़ुबैदा की खिदमत के लिए एक सौ ख़ादिमा थीं
जिनको क़ुरआन ए करीम याद था और वो हर वक़्त क़ुरआन ए पाक
की तिलावत करती रहती थीं, उनके महल में से क़िरात की आवाज़ शहद की मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह आती रहती थी ।
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मलिका ज़ुबैदा ने पानी की क़िल्लत के सबब हुज्जाज किराम और अहले मक्का को दरपेश मुश्किलात और दुश्वारियों का अपनी आंखों से मुशाहिदा किया तो उन्होंने मक्के में एक नहर निकलवाने का इरादा किया ।
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अब नहर की खुदाई का मंसूबा सामने आया तो मुख्तलिफ इलाकों से माहिर इंजीनियर बुलवाए गए- मक्का मुकर्रमा से 35 किलोमीटर शिमाल मशरिक़ में वादी हुनैन के "जबले याद" से नहर निकालने का फ़ैसला किया गया ।
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इस अज़ीम मंसूबे पर सत्रह लाख ( 17,00,000 ) दीनार
खर्च हुए । जब नहरे ज़ुबैदा की मंसूबाबंदी शुरू हुई तो इस
मंसूबे का मुंतज़िम इंजीनियर आया और कहने लगा:
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"आपने जिस काम का हुक्म दिया है उसके लिए खासे अखराजात दरकार हैं, क्यूंकि
इसकी तकमील के लिए बड़े बड़े पहाड़ों को काटना पड़ेगा,
चट्टानों को तोड़ना पड़ेगा,ऊंच नीच की मुश्किलात से निपटना
पड़ेगा, सैंकड़ों मज़दूरों को दिन रात मेहनत करनी पड़ेगी- तब
कहीं जाकर इस मंसूबे को पाया ए तकमील तक पहुंचाया जा
सकता है ।"
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ये सुनकर मलिका ज़ुबैदा ने चीफ इंजीनियर से कहा:
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"इस काम को शुरू कर दो,ख्वाह कुल्हाड़े की एक ज़र्ब पर एक
दीनार खर्च आता हो ।"
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इस तरह जब नहर का मंसूबा तकमील को पहुंच गया तो
मुन्तज़िमीन और निगरां हज़रात ने अखराजात की
तफ्सीलात मलिका की खिदमत में पेश कीं ।
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उस वक़्त मलिका दरिया ए दजला के किनारे वाक़े अपने महल में थीं । मलिका ने वो तमाम कागज़ात लिए और उन्हें खोल कर देखे बगैर दरिया में फेंक दिए और कहने लगीं:
"इलाही ! मैंने दुनियां में कोई हिसाब किताब नहीं लेना,तू
भी मुझसे क़यामत के दिन कोई हिसाब ना लेना"
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<ﺍﻟﺒﺪﺍﯾﮧ ﻭﺍﻟﻨﮩﺎﯾﮧ>
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#faizan

Friday 26 July 2019

धनेडा की मस्जिद

"धनेडा की मस्जिद"
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बादशाह औरंगज़ेब  काशी  बनारस  की  एक  ऐतिहासिक  मस्जिद
(धनेडा की मस्जिद)  यह  एक  ऐसा  इतिहास  है  जिसे  पन्नो  से  तो  हटा  दिया  गया  है  लेकिन  निष्पक्ष  इन्सान  और  हक़  परस्त 
लोगों  के  दिलो  से  (चाहे वो किसी भी कौम का इन्सान हो) मिटाया 
नहीं जा सकता, और क़यामत
तक मिटाया नहीं जा सकेगा।
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बादशाह औरंगजेब आलमगीर की हुकूमत में काशी बनारस में
एक पंडित की लड़की थी जिसका नाम शकुंतला था,
उस लड़की को एक जाहिल सेनापति ने अपनी
हवस का शिकार बनाना चाहा, और उसके बाप से कहा कि तेरी
बेटी को डोली में सजा कर मेरे महल पे 7 दिन में भेज
देना।
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पंडित ने यह बात अपनी बेटी से कही,
उनके पास कोई रास्ता नहीं था और पंडित से बेटी ने कहा के
1 महीने का वक़्त ले लो कोई भी रास्ता निकल जायेगा…।
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पंडित ने सेनापति से जाकर कहा कि, “मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं 7 दिन में सजाकर लड़की को भेज सकूँ, मुझे महीने का वक़्त दो.”
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सेनापति ने कहा “ठीक है! ठीक
महीने के बाद भेज देना”
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पंडित ने अपनी लड़की से जाकर कहा “वक़्त मिल गया है अब?”
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लड़की ने
मुग़ल शहज़ादे का लिबास पहना और अपनी सवारी को लेकर
दिल्ली की तरफ़ निकल गई, कुछ दिनों के बाद दिल्ली पहुँची,
वो दिन जुमे का दिन था, और जुमे के दिन औरंगजेब आलमगीर
नमाज़ के बाद जब मस्जिद से बहार निकलते तो लोग अपनी
फरियाद एक चिट्ठी में लिख कर मस्जिद की सीढियों के दोनों
तरफ़ खड़े रहते, और हज़रत औरंगजेब आलमगीर वो चिट्ठियाँ
उनके हाथ से लेते जाते, और फिर कुछ दिनों में फैसला (इंसाफ)
फरमाते, 
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वो लड़की (शकुंतला) भी इस क़तार में जाकर खड़ी हो गयी,
उसके चहरे पे नकाब था, और लड़के का लिबास (ड्रेस) पहना हुआ था,
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जब उसके हाथ से चिट्ठी लेने की बारी आई तब हज़रत
औरंगजेब आलमगीर ने अपने हाथ पर एक कपडा डालकर
उसके हाथ से चिट्ठी ली…
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तब वो बोली महाराज! मेरे साथ
यह नाइंसाफी क्यों? सब लोगों से आपने सीधे
तरीके से चिट्ठी ली और मेरे पास से हाथों पर
कपडा रख कर ???
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तब औरंगजेब आलमगीर ने फ़रमाया के इस्लाम में ग़ैर मेहरम
(पराई औरतों) को हाथ लगाना भी हराम है…
और मैं जानता हूँ तू लड़का नहीं लड़की है…
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शकुंतला बादशाह के साथ कुछ दिन तक ठहरी,
और अपनी फरियाद सुनाई,
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बादशाह हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने उससे कहा “बेटी! तू लौट जा तेरी डोली सेनापति के महल पहुँचेगी अपने
वक़्त पर…”
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शकुंतला सोच में पड गयी के यह क्या?
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वो अपने घर लौटी और उसके बाप पंडित ने पूछा क्या हुआ
बेटी? तो वो बोली एक ही रास्ता था मै
हिन्दोस्तान के बादशाह के पास गयी थी, लेकिन उन्होंने
भी ऐसा ही कहा कि डोली उठेगी,
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लेकिन मेरे दिल में एक उम्मीद की किरण है, वो ये है के
मैं जितने दिन वहाँ रुकी बादशाह ने मुझे 15 बार बेटी कह
कर पुकारा था… 
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और एक बाप अपनी बेटी की
इज्ज़त नीलाम नहीं होने देगा…।
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फिर वह दिन आया जिस दिन शकुंतला की डोली सजधज के
सेनापति के महल पहुँची, सेनापति ने डोली देख के
अपनी अय्याशी की ख़ुशी फकीरों को पैसे लुटाना शुरू किया…।
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जब पैसे लुटा रहा था तब एक कम्बल-पोश फ़क़ीर जिसने अपने चेहरे पे कम्बल ओढ रखी थी… उसने कहा “मैं ऐसा-वैसा फकीर
नहीं हूँ, मेरे हाथ में पैसे दे”,
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उसने हाथ में पैसे दिए और उन्होंने अपने मुह से कम्बल हटा तो सेनापति देखकर हक्का बक्का रह गया क्योंकि उस कंबल में कोई फ़क़ीर नहीं बल्कि औरंगजेब आलमगीर खुद थे…।
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उन्होंने कहा कि तेरा एक पंडित की लड़की की इज्ज़त पे
हाथ डालना मुसलमान हुकूमत पे दाग लगा सकता है,
और औरंगजेब आलमगीर ने इंसाफ फ़रमाया 4 हाथी मंगवाकर सेनापति के दोनों हाथ और पैर बाँध कर अलग अलग दिशा में हाथियों को दौड़ा दिया गया… और सेनापति को चीर दिया गया…
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फिर आपने पंडित के घर पर एक चबूतरा था उस चबूतरे के पास दो रकात नमाज़ नफिल शुक्राने की अदा
की,
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और दुआ कि के, “ऐ अल्लाह! मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ, के तूने मुझे
एक ग़ैर इस्लामिक लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए, इंसाफ
करने के लिए चुना…।
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फिर औरंगजेब आलमगीर ने कहा
“बेटी! ग्लास पानी लाना!”
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लड़की पानी लेकर आई, तब आपने फ़रमाया कि:“जिस दिन दिल्ली में मैंने तेरी फरियाद सुनी थी उस दिन से मैंने क़सम खायी थी के जब तक तेरे साथ इंसाफ नहीं होगा पानी नहीं पिऊंगा…।
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”तब शकुंतला के बाप (पंडित जी) और काशी बनारस के दूसरे
हिन्दू जन ने उस चबूतरे के पास एक मस्जिद तामीर की, जिसका नाम “धनेडा की मस्जिद” रखा गया…
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और पंडितों ने ऐलान किया के ये बादशाह औरंगजेब आलमगीर के इंसाफ की ख़ुशी में हमारी तरफ़ से इनाम है…
और सेनापति को जो सजा दी गई वो इंसाफ़ एक सोने की तख़्त पर
लिखा गया था जो आज भी धनेडा की मस्जिद में मौजूद है।
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दुआ की दरख़्वास्त

Tuesday 26 February 2019

कलाम हज़रत ख़्वाजा अज़ीज़ उल हसन "मजज़ूब" (रहमतुल्लाह अलैह)

इबरत

..जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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जहाँ में हैं इबरत के हर सू नमूने,
मगर तुझ को अंधा किया रंगो बू नें,
कभी गौर से भी, ये देखा है तूने,
जो आबाद थे वो महल अब हैं सूने।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है।।
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मिले ख़ाक़ में अहले शाँ कैसे कैसे,
मकीं हो गए ला मकाँ कैसे कैसे,
हुए नामवर बे निशाँ कैसे कैसे,
ज़मीं खा गई नौजवाँ कैसे कैसे ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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अजल ने न किसरा ही छोड़ा न दारा,
इसी से सिकन्दर फातेह भी हारा,
हर इक ले के क्या क्या न हसरत सिधारा,
पड़ा रह गया सब यूँ ही ठाट सारा।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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तुझे पहले बचपन में बरसों खिलाया,
जवानी ने फिर तुझको मजनू बनाया,
बुढ़ापे ने फ़िर आ के क्या क्या सिताया,
अजल तेरा कर दे गी बिल्कुल सफ़ाया ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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यही तुझको धुन है रहूँ सब से बाला,
हो ज़ीनत निराली, हो फ़ैशन निराला,
जिया करता है क्या? युँही मरने वाला,
तुझे हुस्ने ज़ाहिर ने धोख़े में डाला ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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ये दुनिया ए फ़ानी है महबूब तुझको,
हुई वा-ह क्या चीज़ मरग़ूब तुझको,
नहीं अक़्ल इतनी भी मजज़ूब तुझको,
समझ लेना अब चाहिए ख़ूब तुझको।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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कलाम: हज़रत ख़्वाजा अज़ीज़ उल हसन "मजज़ूब" (रहमतुल्लाह अलैह)
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Admin: Mohammad Faizan Raza Khan Warsi

Saturday 22 December 2018

Fateh Qustuntunia (Istanbul Victory) 29th May 1453

क़ुस्तुन्तुनिया पर मुसलमानों की वो अज़ीमुश्शान फ़तह,
जिसको यूरोप कभी नहीं भूल सका
29 मई, साल 1453 की तारीख. रात के डेढ़ बजे हैं. दुनिया
के एक प्राचीन और एक महान शहर की
दीवारों और गुंबदों के ऊपर चांद तेजी से पश्चिम
की ओर दौड़ा जा रहा है. जैसे उसे किसी ख़तरे का अंदेशा
हो… इस डूबते हुए चांद के धुंधलके में देखने वाले देख सकते हैं कि शहर
की दीवारों के बाहर फौज के दस्ते पक्के इरादे के साथ
इकट्ठे हो रहे हैं. उनके दिल में ये एहसास है कि वे इतिहास के एक निर्णायक बिंदु
पर खड़े हैं.
ये शहर कस्तुनतुनिया है (आज का इस्तांबुल) और दीवारों के बाहर
उस्मानी फौज (तुर्क सेना) आखिरी हल्ला बोलने
की तैयारी कर रही है. उस्मानी
तोपों को शहर की दीवार पर गोले बरसाते हुए 476 दिन
बीत चुके हैं. कमांडरों ने ख़ास तौर पर तीन जगहों पर तोपों
का मुंह केंद्रित रखकर दीवार को जबरदस्त नुक़सान पहुंचाया है.
21 साल के उस्मानी सुल्तान मोहम्मद सानी अप्रत्याशित
रूप से अपने फौज के अगले मोर्चे पर पहुंच गए हैं. उन्होंने ये फैसला कर लिया है
कि आखिरी हमला दीवार के ‘मैसोटीक्योन’
कहलाने वाले बीच के हिस्से पर किया जाएगा जहां कम से कम नौ दरारें
पड़ चुकी हैं और खंदक का बड़ा हिस्सा पाट दिया गया है. सिर पर
भारी पग्गड़ बांधे और स्वर्ण जड़ित लिबास पहने सुल्तान ने अपने
सैनिकों को तुर्की जबान में संबोधित किया, ‘मेरे दोस्तों और बच्चों, आगे
बढ़ो, अपने आप को साबित करने का लम्हा आ गया है.’ इसके साथ ही
नक्कारों, रणभेरी, तबलों और बिगुल के शोर ने रात की
चुप्पी को तार-तार कर दिया, लेकिन इस कान फाड़ते शोर में
भी उस्मानी फौज के गगनभेदी नारे साफ सुनाई
दे रहे थे जिन्होंने किले की दीवार के कमजोर हिस्सों पर
हल्ला बोल दिया था। एक तरफ ज़मीन पर और दूसरी तरफ़
समुद्र में खड़े जहाजों पर तैनात तोपों के दहानों ने आग बरसाना शुरू कर दिया. इस
हमले के लिए बांजिटिनी सैनिक तैयार खड़े थे. लेकिन पिछले डेढ़
महीनों की घेराबंदी ने उनके हौंसले पस्त कर
दिए थे.
बहुत से शहरी भी मदद के लिए दीवार तक
आ पहुंचे थे और उन्होंने पत्थर उठा-उठाकर नीचे इकट्ठा होने वाले
सैनिकों पर फेंकना शुरू कर दिया था. दूसरे लोग अपने-अपने
करीबी गिरिजाघरों की तरफ़ दौड़े और रो-रो कर
प्रार्थना शुरू कर दी. पादरियों ने शहर के विभिन्न चर्चों की
घंटियां पूरी ताकत से बजानी शुरू कर दी
थी जिनकी टन टनाटन ने उन लोगों को भी जगा
दिया जो अभी तक सो रहे थे.
ईसाई धर्म के सभी संप्रदायों के लोग अपने सदियों पुराने मतभेद भुलाकर
एकजुट हो गए और उनकी बड़ी संख्या सबसे बड़े और
पवित्र चर्च हाजिया सोफिया में इकट्ठा हो गई. सुरक्षाकर्मियों ने बड़ी
जान लगाकर उस्मानी फौज के हमले रोकने की कोशिश
की. लेकिन इतालवी डॉक्टर निकोल बारबिरो जो उस दिन शहर
में मौजूद थे.
वे लिखते हैं कि ‘सफेद पगड़ियाँ बांधे हुए हमलावर आत्मघाती दस्ते
बेजिगर शेरों की तरह हमला करते थे और उनके नारे और नगाड़ों
की आवाजें ऐसी थी जैसे उनका संबंध इस
दुनिया से ना हो.’ रोशनी फैलने तक तुर्की
सिपाही दीवार के ऊपर पहुंच गए.
इस दौरान ज्यादातर सुरक्षा कर्मी मारे जा चुके थे और उनका सेनापति
जीववानी जस्टेनियानी गंभीर रूप से
घायल होकर रणभूमि से भाग चुका था. जब पूरब से सूरज की
पहली किरण दिखाई दी तो उसने देखा कि एक तुर्क सैनिक
करकोपरा दरवाजे के ऊपर स्थापित बाजिंटिनी झंडा उतारकर
उसकी जगह उस्मानी झंडा लहरा रहा था। सुल्तान
मोहम्मद सफेद घोड़े पर अपने मंत्रियों और प्रमुखों के साथ हाजिया सोफिया के चर्च
पहुंचे. प्रमुख दरवाजे के पास पहुंचकर वह घोड़े से उतरे और सड़क से एक
मुट्ठी धूल लेकर अपनी पगड़ी पर डाल
दी. उनके साथियों की आंखों से आँसू बहने लगे. 700 साल
के संघर्ष के बाद मुसलमान आखिरकार कस्तुनतुनिया फतह कर चुके थे.
कस्तुनतुनिया की विजय सिर्फ एक शहर पर एक राजा के शासन का
खात्मा और दूसरे शासन का प्रारंभ नहीं था. इस घटना के साथ
ही दुनिया के इतिहास का एक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हुआ
था. एक तरफ 27 ईसा पूर्व में स्थापित हुआ रोमन साम्राज्य 1480 साल तक
किसी न किसी रूप में बने रहने के बाद अपने अंजाम तक
पहुंचा. दूसरी ओर उस्मानी साम्राज्य ने अपना बुलंदियों को
छुआ और वह अगली चार सदियों तक तक तीन
महाद्वीपों, एशिया, यूरोप और अफ्रीका के एक बड़े हिस्से
पर बड़ी शान से हुकूमत करता रहा. 1453 ही वो साल था
जिसे मध्य काल के अंत और नए युग की शुरुआत का बिंदु माना जाता है.
यही नहीं बल्कि कस्तुनतुनिया की विजय को
सैनिक इतिहास का एक मील का पत्थर भी माना जाता है
क्योंकि उसके बाद ये साबित हुआ कि अब बारूद के इस्तेमाल और बड़ी
तोपों की गोलाबारी के बाद दीवारें किसी
शहर की सुरक्षा के लिए काफी नहीं है.
शहर पर तुर्कों के कब्जे के बाद यहां से हजारों संख्या यूनानी बोलने
वाले लोग भागकर यूरोप और खास तौर से इटली के विभिन्न शहरों में जा
बसे. उस समय यूरोप अंधकार युग से गुज़र रहा था और प्राचीन
यूनानी सभ्यता से कटा हुआ था. लेकिन इस दौरान कस्तुनतुनिया में
यूनानी भाषा और संस्कृति काफी हद तक बनी
रही थी।
यहां आने वाले मोहाजिरों के पास हीरे जवाहरात से भी
बेशकीमती खजाना था. अरस्तू, अफलातून (प्लेटो),
बतलिमूस, जालिनूस और फिलॉसफर विद्वान के असल यूनानी नुस्खे उनके
पास थे. इन सब ने यूरोप में प्राचीन यूनानी ज्ञान को फिर
से जिंदा करने में जबरदस्त किरदार अदा किया. इतिहासकारों के मुताबिक
उन्हीं से यूरोप के पुनर्जागरण की शुरुआत हुई जिसने
आने वाली सदियों में यूरोप को बाकी दुनिया से आगे ले जाने में
मदद दी. जो आज भी बरकरार है. फिर भी
नौजवान सुल्तान मुहम्मद को, जिसे आज दुनिया सुल्तान मोहम्मद फातेह के नाम से
जानती है, 29 मई की सुबह जो शहर नज़र आया था, ये
वो शहर नहीं था जिसकी शानोशौकत के अफसाने उसने
बचपन से सुन रखे थे. लंबी गिरावट के दौर के बाद बांजिटिनी
सल्तनत आखिरी सांसे ले रही थी और
कुस्तुनतिया जो सदियों तक दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे मालदार शहर रहा था,
अब उसकी आबादी सिकुड़ कर चंद हज़ार रह गई
थी. और शहर के कई हिस्से वीरानी के कारण
एक दूसरे से कटकर अलग-अलग गांवों में तब्दील हो गए थे. कहा जाता
है कि नौजवान सुल्तान ने शहर के बुरे हालात को देखते हुए शेख सादी
का कहा जाने वाला एक शेर पढ़ा जिसका अर्थ है… “उल्लू, अफरासियाब के
मीनारों पर नौबत बजाया जाता है… और कैसर के महल पर
मकड़ी ने जाले बुन लिए हैं…”
कस्तुनतुनिया का प्राचीन नाम बाजिंटिन था. लेकिन जब 330
ईस्वी में रोमन सम्राट कॉन्सटेंटाइन प्रथम ने अपनी
राजधानी रोम से यहाँ स्थानांतरित की तो शहर का नाम बदल
कर अपने नाम के हिसाब से कौंस्टेन्टीनोपल कर दिया, (जो अरबों के यहां
पहुँच कस्तुनतुनिया बन गया).
पश्चिम में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ये राज्य कस्तुनतुनिया में बना रहा और
चौथी से 13वीं सदी तक इस शहर ने विकास
की वो कामयाब सीढ़ियां तक की कि इस दौरान
दुनिया का कोई और शहर उसकी बराबरी का दावा
नहीं कर सकता था. यही कारण है कि मुसलमान शुरू से
ही इस शहर को जीतने का ख्वाब देखते आए थे.
इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने की खातिर कुछ
शुरुआती कोशिशों की नाकामी के बाद 674
ईस्वी में एक जबरदस्त नौसैनिक बेड़ा तैयार कर कस्तुनतुनिया
की ओर रवाना कर दिया गया. इस बेड़े ने शहर के बाहर डेरा डाल दिए
और अगले चार साल तक लगातार दीवार पार करने की कोशिश
की जाती रही.
आखिर 678 ईस्वी में बांजिटिनी जहाज शहर से बाहर
निकले और उन्होंने आक्रामणकारी अरबों पर हमला कर दिया. इस बार
उनके पास एक जबरदस्त हथियार था, जिसे ‘ग्रीक फायर’ कहा जाता था.
इसका ठीक-ठीक फॉर्मूला आज तक मालूम
नहीं हो सका लेकिन ये ऐसा ज्वलनशील पदार्थ था जिसे
तीरों की मदद से से फेंका जाता था
कस्तुनतुनिया की घेराबंदी और ये कश्तियों और जहाजों से
चिपक जाता था. इसके अलावा पानी डालने से इसकी आग
और भड़कती थी. इस आपदा के लिए अरब तैयार
नहीं थे. इसलिए देखते ही देखते सारे नौसैनिक बेड़े आग के
जंगल में बदल गए. सैनिक जान बचाने के लिए पानी में कूद गए. लेकिन
यहां भी पनाह नहीं मिली क्योंकि
ग्रीक फायर पानी की सतह पर गिरकर
भी जल रहे थे और ऐसा लगता था कि पूरे समुद्र में आग लग गई है.
अरबों के पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था. वापसी में
एक भयानक समुद्री तूफान ने रही सही कसर
भी पूरी कर दी और सैंकड़ों कश्तियों में बस
एक आध ही बचकर लौटने में कामयाब हो पाए.
इस घेराबंदी के दौरान प्रसिद्ध सहाबी अबू अय्यूब
अंसारी ने भी अपनी ज़िंदगी कुर्बान
कर दी. उनका मकबरा आज भी शहर की
दीवार के बाहर है. सुल्तान मोहम्मद फातेह ने यहां एक मस्जिद बनाई
थी जिसे तुर्क पवित्र स्थान मानते हैं. उसके बाद 717
ईस्वी में बनु उमैया के अमीर सुलेमान बिन अब्दुल मलिक ने
बेहतर तैयारी के साथ एक बार फिर कस्तुनतुनिया की
घेराबंदी की लेकिन इसका भी अंजाम अच्छा
नहीं हुआ और दो हज़ार के करीब नौसेना की
जंगी कश्तियों में से सिर्फ पांच बचकर वापस आने में कामयाब हो पाए.
राजधानी अदर्ना से कस्तुनतुनिया शायद यही कारण था कि
इसके बाद छह शताब्दियों तक मुसलमानों ने कस्तुनतुनिया की तरफ रुख
नहीं किया. लेकिन सुल्तान मोहम्मद फातेह ने अंत में शहर पर अपना
झंडा लहराकर सारे पुराने बदले चुका दिए. शहर पर कब्जा जमाने के बाद सुल्तान ने
अपनी राजधानी अदर्ना से कस्तुनतुनिया कर ली
और खुद अपने लिए कैसर-ए-रोम की उपाधि धारण की.
आने वाले दशकों में उस शहर ने वो उरूज देखा जिसने एक बार फिर
प्राचीन काल की याद ताजा करा दी. सुल्तान ने
अपने सल्तनत में फरमान भेजा, ‘जो कोई चाहे, वो आ जाए, उसे शहर में घर और
बाग मिलेंगे…’ सिर्फ यही नहीं, उन्होंने यूरोप से
भी लोगों को कस्तुनतुनिया आने की दावत दी ताकि
फिर से शहर बस जाए. इसके अलावा, उन्होंने शहर के क्षतिग्रस्त
बुनियादी ढांचे का पुनर्निर्माण किया, पुरानी नहरों
की मरम्मत की और जल निकासी व्यवस्था को
सुधारा. उन्होंने बड़े पैमाने पर नए निर्माण का सिलसिला शुरू किया जिसकी
सबसे बड़ी मिसाल तोपकापी महल और ग्रैंड बाजार है.
जल्द ही तरह-तरह के शिल्पकार, कारीगर,
व्यापारी, चित्रकार, कलाकार और दूसरे हुनरमंद इस शहर का रुख करने
लगे. सुल्तान फातेह ने हाजिया सोफिया को चर्च से मस्जिद बना दिया. लेकिन उन्होंने
शहर के दूसरे बड़े गिरिजाघर कलिसाय-ए-हवारियान को यूनानी
रूढ़िवादी संप्रदाय के पास ही रहने दिया और ये संप्रदाय एक
संस्था के रूप में आज भी कायम है।
यूनान का मनहूस दिन सुल्तान फातेह के बेटे सलीम के दौर में
उस्मानी सल्तनत ने खिलाफत का दर्जा हासिल कर लिया और
कस्तुनतुनिया उसकी राजधानी बनी और मुस्लिम
दुनिया के सारे सुन्नियों का प्रमुख शहर बन गया. सुल्तान फातेह के पोते सुलेमान
आलीशान के दौर में कस्तुनतुनिया ने नई ऊंचाइयों को छुआ.
ये वही सुलेमान हैं जिन्हें मशहूर तुर्की नाटक ‘मेरा
सुल्तान’ में दिखाया गया है. सुलेमान आलीशान की मलिका
खुर्रम सुल्तान ने प्रसिद्ध वास्तुकार सनान की सेवा ली,
जिन्होंने रानी के लिए एक आलीशान महल बनाया. सनान
की दूसरी प्रसिद्ध इमारतों में सुलेमानिया मस्जिद, खुर्रम
सुल्तान हमाम, खुसरो पाशा मस्जिद, शहजादा मस्जिद और दूसरी इमारतों
शामिल हैं.
यूरोप पर कस्तुनतुनिया के पतन का गहरा असर पड़ा था और वहां इस सिलसिले में
कई किताबें और नजमें लिखी गई थीं और कई पेटिंग्स बनाई
गईं जो लोगों की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन गईं. यही
कारण है कि यूरोप इसे कभी नहीं भूल सका.
नैटो का अहम हिस्सा होने के बावजूद, यूरोपीय संघ सदियों पुराने जख्मों
के कारण तुर्की को अपनाने से आनाकानी से काम लेता है.
यूनान में आज भी गुरुवार को मनहूस दिन माना जाता है. वो
तारीख 29 मई 1453 को गुरुवार का ही दिन था।

Sunday 25 November 2018

कलामे इक़्बाल


※कलामे इक़्बाल※



ﻟﻮﺡ ﺑﮭﯽ ﺗﻮ ، ﻗﻠﻢ ﺑﮭﯽ ﺗﻮ ، ﺗﻴﺮﺍ ﻭﺟﻮﺩ ﺍﻟﮑﺘﺎﺏ
लौह भी तू , क़लम भी तू ,
तेरा वुजूद अलकिताब ।
ﮔﻨﺒﺪ ﺁﺑﮕﻴﻨﮧ ﺭﻧﮓ ﺗﻴﺮﮮ ﻣﺤﻴﻂ ﻣﻴﮟ ﺣﺒﺎﺏ
ग़ुम्बदे आब्गीना रंग,
तेरे मुह़ीत़ में हिबाब ।
ﻋﺎﻟﻢ ﺁﺏ ﻭ ﺧﺎﮎ ﻣﻴﮟ ﺗﻴﺮﮮ ﻇﮩﻮﺭ ﺳﮯ ﻓﺮﻭﻍ
आलमे आबो ख़ाक़ में,
तेरे ज़हूर से फ़रोग़ ।
ﺫﺭﮦ ﺭﻳﮓ ﮐﻮ ﺩﻳﺎ ﺗﻮ ﻧﮯ ﻃﻠﻮﻉ ﺁﻓﺘﺎﺏ
ज़र्राह रेग़ को दिया,
तू ने तुलूए आफ़ताब
ﺷﻮﮐﺖ ﺳﻨﺠﺮ ﻭ ﺳﻠﻴﻢ ﺗﻴﺮﮮ ﺟﻼﻝ ﮐﯽ ﻧﻤﻮﺩ
शौकते सन्जरो सलीम,
तेरे जलाल की नमूद ।
ﻓﻘﺮ ﺟﻨﻴﺪ ﻭ ﺑﺎﻳﺰﻳﺪ ﺗﻴﺮﺍ ﺟﻤﺎﻝ ﺑﮯ ﻧﻘﺎﺏ
फ़क्र जुनैदो बायज़ीद,
तेरा जमाल बेनकाब ।
ﺷﻮﻕ ﺗﺮﺍ ﺍﮔﺮ ﻧﮧ ﮨﻮ ﻣﻴﺮﯼ ﻧﻤﺎﺯ ﮐﺎ ﺍﻣﺎﻡ
शौक़ तेरा अगर न हो,
मेरी नमाज़ का इमाम ।
ﻣﻴﺮﺍ ﻗﻴﺎﻡ ﺑﮭﯽ ﺣﺠﺎﺏ ، ﻣﻴﺮﺍ ﺳﺠﻮﺩ ﺑﮭﯽ ﺣﺠﺎﺏ
मेरा क़याम भी हिजाब,
मेरा सुजूद भी हिजाब ।
ﺗﻴﺮﯼ ﻧﮕﺎﮦ ﻧﺎﺯ ﺳﮯ ﺩﻭﻧﻮﮞ ﻣﺮﺍﺩ ﭘﺎ ﮔﺌﮯ
तेरी निगाहे नाज़ से,
दोनो मुराद पा गए ।
ﻋﻘﻞ ﻏﻴﺎﺏ ﻭ ﺟﺴﺘﺠﻮ ، ﻋﺸﻖ ﺣﻀﻮﺭ ﻭ ﺍﺿﻄﺮﺍﺏ
अक्ले ग़याबो जुस्तजू,
इश्के हुज़ूरो इज़तिराब ।


सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम

Tuesday 21 August 2018

Hazrat Syed Haji Ali Shah Bukhari Radi Allahu anh

हज़रत सय्यद पीर हाजी अली शाहबुख़ारी (रदियल्लाहो तआला अन्ह)मुम्बई

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हाजी अली उज्बेकिस्तान के बुखारा शहर के रहने वाले थे I
आप बहोत पैसे वाले व्यापारी थे, आपने पूरी दुनिया का
भ्रमण किया है आज से तक़रीबन 550 वर्ष पूर्व आप अपने भाई के
साथ पहली बार भारत देश में भी पहुचे उस वक्त
भी मुंबई प्रमुख व्यापारिक स्थल हुवा करता था I मुंबई के
वरली इलाके में आकर आप रुके और फिर वे इसी जगह
पर रहने लगे I भारत में रहकर आपने बहोत से बुज़ुर्ग, कामिल वलिअल्लाहो को
देखा, उनके बारे में सुना और आपने महसूस की इन बुजुर्गो ने जिनमे
हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती र.अ.,
कुतबुद्दीन चिश्ती र.अ., बाबा फरीद र.अ.,
निजामुद्दीन चिश्ती र.अ.,जैसे अनेक सूफी संत
है जिन्होंने खल्क की खिदमत की और उनके प्रभाव से
इस मुल्क में इस्लाम तेज़ी से फल फूल रहा था I ज़रूरत
थी इन बुजुर्गो के लगाये पौधों को सीचने की,
आपको महसूस हुवा की अल्लाह ने उन्हें भी
इसी वजह से मुल्के हिंदुस्तान मुबंई में भेजा है लिहाज़ा आपने
भी यहाँ आने के बाद इंसानियत और इस्लाम की खिदमत को
अपना मकसद बनाया I आप बुखारा शरीफ के थे आपके अन्दर अल्लाह
ने तमाम रूहानी वो बातिनी इल्म पहले से दिए हुवे थे लिहाज़ा
आपने व्यापार को छोड़कर खिदमते खल्क का रास्ता चुना I आपकी बाते
सुनकर सभी मज़हब के लोग तेज़ी से आपके
करीब आने लगे I आप इंसानो के दुःख दर्द को अच्छी
तरह से समझते थे आपने हर तरह से सभी की मदद
की सभी को सही रास्ता दिखलाया I इधर
हिन्दुस्तान में रहते हुवे जब काफी दिन हो गए तो आपकी
वाल्दा ने आप के पास खबर भिजवाई आपने जवाब दिया अल्लाह चाहता है
की मै हिन्दुस्तान में ही रहकर खल्क की
खिदमत करू लिहाज़ा ए अम्मीजान आप मेरी फ़िक्र मत
कीजे और मेरे लिए अल्लाह से दुवा करे की अल्लाह मुझे
इस अज़ीम मकसद में कामयाबी दे I और इस तरह आप
हमेशा हमेशा के लिए हिंदुस्तान में ही रहने लगे I
आपने कई बार हज का सफ़र किया था I लोग आपको हाजी
अली कहा करते I ऐसा कहा जाता है की हज के दौरान
ही आप की रूह ने आपके जिस्म का साथ छोड़ दिया, और
आपकी नसीहत के मुताबिक आपके जिस्म मुबारक को एक
ताबूत में बंद कर समुद्र में छोड़ दिया गया आपका जिस्म मुबारक अरब सागर में हजारो
मील का सफ़र तय करता हुवा मुंबई के वरली स्थित
बंदरगाह जहाँ आज भी आपकी मजार है वहां पर
ही आकर रुक गया I और आपकी वसीयत के
मुताबिक ये वही जगह थी जहाँ आपने कहा था
इसी वजह से इस जगह पर सन 1431 में आपकी मजार
बनायीं गई I तो कुछ का मानना कुछ और है मगर ये बात तो
हकीकत है की आक्पकी
वसीयत के मुताबिक ही आपकी दरगाह समुद्र
के बीच इस जगह पर मौजूद है I अल्लाह I मजार के साथ एक
मस्जिद भी है I हाजी अली की
दरगाह वरली मुंबई में अरब सागर समुद्र के किनारे से
तक़रीबन 500 गज की दूरी पर आज
भी वैसी ही मौजूद है जैसा की
कल थी I आज भी अरब सागर की लहरे
उनकी मज़ार की दीवारों तक
पहुचती तो ज़रूर है मगर उसकी इतना मजाल
नहीं की वो उस दरगाह तक पहुच सके I कोई नुकसान
पहुचाना तो दूर की बात है लहरे आज तक इसे कभी छू
भी नहीं सकी है लगता है जैसे
पानी खुद इस मुक़द्दस दर का तवाफ़ करने आता तो बहोत
तेज़ी से है मगर उतनी ही तेज़ी
से थम भी जाता है और फिर खुश होकर वापस चला जाता है I हालाकि
दरगाह के नीचे हजारो फिट पानी होगा मगर ये दरगाह
अपनी जगह पर किस तरह कायम है ये हैरानी
की बात है I पहले इस दरगाह के अन्दर औरतो का जाना मना था मगर
कोर्ट के फैसले के बाद से आज वहां पर औरते भी अन्दर आ जा
रही है I इस जगह पर बहोत से लोग सैर और तफरीह
के लिए भी आते है और आज ये जगह एक प्रमुख स्थल है I
हाजी अली के बारे में एक और बात पता चली
है की आपने अपनी बहन को भी ख्वाब में
बशारत दी और अपने इस जगह पर मौजूद होने के बारे में बतलाया I
आपकी बहन इस जगह पर आई और उन्होंने भी अपने
भाई के इस अधूरे मिशन को पूरा करने का बीड़ा उठाया और वो
भी ताउम्र मुंबई में ही रही
आपकी भी दरगाह कुछ फासले में मौजूद है I
ये अल्लाह वालो की शान है , जहाँ उनका दिल चाहे, या फिर हुक्म ए
इलाही हो वे वही रहते है I और कल भी ये
खल्क की खिदमत कर रहे थे और आज भी ये खल्क
की खिदमत कर रहे है क्योकि ये अल्लाह के वली
(दोस्त)है जो बेशक जिंदा है I मुंबई माहिम में ही हज़रत मखदूम शाह
की दरगाह भी समुद्र के किनारे स्थित है जहा पर कुछ
साल पहले ही समुद्र का पानी मीठा होने का
वाकया काफी मशहूर हुवा था I इसी दरगाह में हुजुर ए
अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मुक़द्दस दर से लायी गई
चादर शरीफ भी एक फ्रेम में लगी हुई है
आप कभी जाये तो उसकी भी जियारत ज़रूर करे
I मुंबई में ही कल्याण से कुछ दूरी पर पहाड़ में
काफी उचाईयों पर हाजी मस्तान की दरगाह
भी मौजूद है I हाजी मस्तान की दरगाह में
भी एक तरफ अगर मुसलमान खादिम बैठते है तो दूसरी
तरफ हिन्दू खादिम, बैठते है, उनके वक्त भी सभी कौम
के लोग इस जगह पर आकर उनके साथ रहने लगे थे और आज भी
यहाँ पर सभी कौम के लोगो को देखा जा सकता है I तीनो
ही जगह बेमिसाल है और जो सुकून है वो तो आपको वहां जाने के बाद
ही पता चल सकता है |!
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Saturday 18 August 2018

नसीहत


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،،،،،،،" ﻧﺼﯿﺤﺖ " ،،،،،،،

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एक बेटी को किसी बाप ने पैग़ाम दिया,
जिसमें ख़ुशनूदी ए रब थी अमल अंजाम दिया,
ढालकर लफ्ज़ों में एक तोहफ़ा ए इस्लाम दिया,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺍﯾﮏ ﺑﯿﭩﯽ ﮐﻮ ﮐﺴﯽ ﺑﺎﭖ ﻧﮯ ﭘﯿﻐﺎﻡ ﺭﯾﺎ،
ﺟﺴﻤﯿﮟ ﺧﻮﺷﻨﻮﺩﯼﺀِ ﺭﺏ ﺗﮭﯽ ﻋﻤﻞ ﺍﻧﺠﺎﻡ ﺩﯾﺎ،
ﮈﮬﺎﻝ ﮐﺮ ﻟﻔﻈﻮﮞ ﻣﯿﮟ ﺍﯾﮏ ﺗﺤﻔﮧ ﺀِ ﺍﺳﻼﻡ ﺩﯾﺎ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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दिल में बेअस्ल ख़्यालात न आने देना,
फ़िक़्र की हद में ग़लत बात न आने देना,
आड़े ईमान के जज़्बात न आने देना,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺩﻝ ﻣﯿﮟ ﺑﮯ ﺍﺻﻞ ﺧﯿﺎﻻﺕ ﻧﮧ ﺁﻧﮯ ﺩﯾﻨﺎ،
ﻓﮑﺮ ﮐﯽ ﺣﺪ ﻣﯿﮟ ﻏﻠﻂ ﺑﺎﺕ ﻧﮧ ﺁﻧﮯ ﺩﯾﻨﺎ،
ﺁﮌﮮ ﺍﯾﻤﺎﻥ ﮐﮯ ﺟﺰﺑﺎﺕ ﻧﮧ ﺁﻧﮯ ﺩﯾﻨﺎ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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आँच माँ बाप की इज़्ज़त पे न आने पाये,
उंगलियां तुझपे ज़माना न उठाने पाये,
हाथ से दामने इस्लाम न जाने पाये,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺁﻧﭻ ﻣﺎﮞ ﺑﺎﭖ ﮐﯽ ﻋﺰّﺕ ﭘﮧ ﻧﮧ ﺁﻧﮯ ﭘﺎﮮ،
ﺍﻧﮕﻠﯿﺎﮞ ﺗﺠﮭﭙﮯ ﺯﻣﺎﻧﮧ ﻧﮧ ﺍﭨﮭﺎﻧﮯ ﭘﺎﮮ،
ﮨﺎﺗﮫ ﺳﮯ ﺩﺍﻣﻦِ ﺍﺳﻼﻡ ﻧﮧ ﺟﺎﻧﮯ ﭘﺎﮮ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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हुस्ने किरदार सजाने की अदा है परदा,
अपनी इज़्ज़त को बढ़ाने की अदा है परदा,
एक पाकीज़ा घराने की अदा है परदा,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺣﺴﻦِ ﮐﺮﺩﺍﺭ ﺳﺠﺎﻧﮯ ﮐﯽ ﺍﺩﺍ ﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ،
ﺍﭘﻨﯽ ﻋﺰّﺕ ﮐﻮ ﺑﮍﮬﺎﻧﮯ ﮐﯽ ﺍﺩﺍ ﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ،
ﺍﯾﮏ ﭘﺎﮐﯿﺰﮦ ﮔﮭﺮﺍﻧﮯ ﮐﯽ ﺍﺩﺍ ﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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दौरे फ़ैशन की रवानी में न बहना बेटी,
इस नसीहत से खबरदार तू रहना बेटी,
परदा औरत के लिये होता है गहना बेटी,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺩﻭﺭِ ﻓﯿﺸﻦ ﮐﯽ ﺭﻭﺍﻧﯽ ﻣﯿﮟ ﻧﮧ ﺑﮩﻨﺎ ﺑﯿﭩﯽ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﺳﮯ ﺧﺒﺮﺩﺍﺭ ﺗﻮ ﺭﮨﻨﺎ ﺑﯿﭩﯽ،
ﭘﺮﺩﮦ ﻋﻮﺭﺕ ﮐﮯ ﻟﯿﮯ ﮨﻮﺗﺎ ﮨﮯ ﮔﮩﻨﺎ ﺑﯿﭩﯽ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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ख्वाहिशें दिल में जो मचलें तो मचलने देना,
रंग बदलेगा ज़माना तू बदलने देना,
खुद को माहौले खराबी में न ढलने देना,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺧﻮﺍﮨﺸﯿﮟ ﺩﻝ ﻣﯿﮟ ﺟﻮ ﻣﭽﻠﯿﮟ ﺗﻮ ﻣﭽﻠﻨﮯ ﺩﯾﻨﺎ،
ﺭﻧﮓ ﺑﺪﻟﯿﮕﺎ ﺯﻣﺎﻧﮧ .............. ﺗﻮ ﺑﺪﻟﻨﮯ ﺩﯾﻨﺎ،
ﺧﻮﺩ ﮐﻮ ﻣﺎﺣﻮﻝِ ﺧﺮﺍﺑﯽ ﻣﯿﮟ ﻧﮧ ﮈﮬﻠﻨﮯ ﺩﯾﻨﺎ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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जाये दुनिया से तो राज़ी हो तेरा रब तुझसे,
सुर्खरू हो मेरी आगोश का मकतब तुझसे,
कोई शिकवा न करे हशर् में मज़हब तुझसे,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺟﺎﯾﮯ ﺩﻧﯿﺎ ﺳﮯ ﺗﻮ ﺭﺍﺿﯽ ﮨﻮ ﺗﯿﺮﺍ ﺭﺏ ﺗﺠﮭﺴﮯ،
ﺳﺮﺥ ﺭﻭ ﮨﻮ ﻣﯿﺮﯼ ﺁﻏﻮﺵ ﮐﺎ ﻣﮑﺘﺐ ﺗﺠﮭﺴﮯ،
ﮐﻮﺀﯼ ﺷﮑﻮﮦ ﻧﮧ ﮐﺮﮮ ﺣﺸﺮ ﻣﯿﮟ ﻣﺰﮨﺐ ﺗﺠﮭﺴﮯ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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दिल में इस्लाम की तालीम बसाये रखना,
अपनी नज़रों को सदा नीचे झुकाये रखना,
जिस्म पर परदा ए इस्मत को सजाये रखना,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺩﻝ ﻣﯿﮟ ﺍﺳﻼﻡ ﮐﯽ ﺗﻌﻠﯿﻢ ﺑﺴﺎﮮ ﺭﮐﮭﻨﺎ،
ﺍﭘﻨﯽ ﻧﻈﺮﻭﮞ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻧﯿﭽﮯ ﺟﮭﮑﺎﮮ ﺭﮐﮭﻨﺎ،
ﺟﺴﻢ ﭘﺮ ﭘﺮﺩﮦ ﺀِ ﻋﺼﻤﺖ ﮐﻮ ﺳﺠﺎﮮ ﺭﮐﮭﻨﺎ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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अपने चेहरे की नुमाईश नहीं करना बेटी,
हटके इस्लाम से ख़्वाहिश नहीं करना बेटी,
राहे ईमान में लरज़िश नहीं करना बेटी,
इस नसीहत को सदा फ़िक़्र में ज़िंदा रखना
जब तलक जान सलामत रहे परदा रखना
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ﺍﭘﻨﮯ ﭼﮩﺮﮮ ﮐﯽ ﻧﻤﺎﯾﺶ ﻧﮩﯿﮟ ﮐﺮﻧﺎ ﺑﯿﭩﯽ،
ﮨﭩﮑﮯ ﺍﺳﻼﻡ ﺳﮯ ﺧﻮﺍﮨﺶ ﻧﮩﯿﮟ ﮐﺮﻧﺎ ﺑﯿﭩﯽ،
ﺯﺍﮦِ ﺍﯾﻤﺎﻥ ﻣﯿﮟ ﻟﺮﺯﺵ ﻧﮩﯿﮟ ﮐﺮﻧﺎ ﺑﯿﭩﯽ،
ﺍﺱ ﻧﺼﯿﺤﺖ ﮐﻮ ﺳﺪﺍ ﻓﮑﺮ ﻣﯿﮟ ﺯﻧﺪﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
ﺟﺐ ﺗﻠﮏ ﺟﺎﻥ ﺳﻼﻣﺖ ﺭﮨﮯ ﭘﺮﺩﮦ ﺭﮐﮭﻨﺎ
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काश सब मर्द भी मिलकर ये इरादा करलें,
देखकर ग़ैर की नामूस को परदा करलें,
नज़रें पाकीज़ा रखेंगे सभी वादा करलें,
फ़िक़्र हो जाये ये हर ज़हन पे ग़ालिब"
परदा औरत पे नहीं सब पे है वाजिब""
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ﮐﺎﺵ ﺳﺐ ﻣﺮﺩ ﺑﮭﯽ ﻣﻠﮑﺮ ﯾﮧ ﺍﺭﺍﺩﮦ ﮐﺮ ﻟﯿﮟ،
ﺩﯾﮑﮫ ﮐﺮ ﻏﯿﺮ ﮐﯽ ﻧﺎﻣﻮﺱ ﮐﻮ ﭘﺮﺩﮦ ﮐﺮ ﻟﯿﮟ،
ﻧﻈﺮﯾﮟ ﭘﺎﮐﯿﺰﮦ ﺭﮐﮭﯿﮟ ﮔﮯ ﺳﺒﮭﯽ ﻭﻋﺪﮦ ﮐﺮ ﻟﯿﮟ،
ﻓﮑﺮ ﮨﻮ ﺟﺎﮮ ﯾﮧ ﮨﺮ ﺫﮨﻦ ﭘﮧ ﻏﺎﻟﺐ "
ﭘﺮﺩﮦ ﻋﻮﺭﺕ ﭘﮧ ﻧﮩﯿﮟ ﺳﺐ ﭘﮧ ﮨﮯ ﻭﺍﺟﺐ
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