Tuesday 27 August 2019

दीने इस्लाम की एक अज़ीम ख़ातून मलिका ज़ुबैदा बिन्ते जाफ़र


हारून रशीद की बीवी मलिका ज़ुबैदा बिन्त जाफ़र, 
फरीज़ा ए हज की अदाएगी के लिए मक्का मुकर्रमा आईं।
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उन्होंने जब अहले मक्का और हुज्जाजे किराम को
पानी की दुश्वारी और मुश्किलात में मुब्तिला देखा
तो उन्हे सख्त अफसोस हुआ ।
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चुनांचे उन्होंने अपने अख़राजात से एक अज़ीमुश्शान नहर खोदने का हुक्म देकर एक ऐसा फक़ीदुल मिसाल कारनामा अंजाम दिया जो रहती दुनियां तक याद रहेगा ।
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मलिका ज़ुबैदा की खिदमत के लिए एक सौ ख़ादिमा थीं
जिनको क़ुरआन ए करीम याद था और वो हर वक़्त क़ुरआन ए पाक
की तिलावत करती रहती थीं, उनके महल में से क़िरात की आवाज़ शहद की मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह आती रहती थी ।
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मलिका ज़ुबैदा ने पानी की क़िल्लत के सबब हुज्जाज किराम और अहले मक्का को दरपेश मुश्किलात और दुश्वारियों का अपनी आंखों से मुशाहिदा किया तो उन्होंने मक्के में एक नहर निकलवाने का इरादा किया ।
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अब नहर की खुदाई का मंसूबा सामने आया तो मुख्तलिफ इलाकों से माहिर इंजीनियर बुलवाए गए- मक्का मुकर्रमा से 35 किलोमीटर शिमाल मशरिक़ में वादी हुनैन के "जबले याद" से नहर निकालने का फ़ैसला किया गया ।
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इस अज़ीम मंसूबे पर सत्रह लाख ( 17,00,000 ) दीनार
खर्च हुए । जब नहरे ज़ुबैदा की मंसूबाबंदी शुरू हुई तो इस
मंसूबे का मुंतज़िम इंजीनियर आया और कहने लगा:
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"आपने जिस काम का हुक्म दिया है उसके लिए खासे अखराजात दरकार हैं, क्यूंकि
इसकी तकमील के लिए बड़े बड़े पहाड़ों को काटना पड़ेगा,
चट्टानों को तोड़ना पड़ेगा,ऊंच नीच की मुश्किलात से निपटना
पड़ेगा, सैंकड़ों मज़दूरों को दिन रात मेहनत करनी पड़ेगी- तब
कहीं जाकर इस मंसूबे को पाया ए तकमील तक पहुंचाया जा
सकता है ।"
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ये सुनकर मलिका ज़ुबैदा ने चीफ इंजीनियर से कहा:
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"इस काम को शुरू कर दो,ख्वाह कुल्हाड़े की एक ज़र्ब पर एक
दीनार खर्च आता हो ।"
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इस तरह जब नहर का मंसूबा तकमील को पहुंच गया तो
मुन्तज़िमीन और निगरां हज़रात ने अखराजात की
तफ्सीलात मलिका की खिदमत में पेश कीं ।
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उस वक़्त मलिका दरिया ए दजला के किनारे वाक़े अपने महल में थीं । मलिका ने वो तमाम कागज़ात लिए और उन्हें खोल कर देखे बगैर दरिया में फेंक दिए और कहने लगीं:
"इलाही ! मैंने दुनियां में कोई हिसाब किताब नहीं लेना,तू
भी मुझसे क़यामत के दिन कोई हिसाब ना लेना"
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<ﺍﻟﺒﺪﺍﯾﮧ ﻭﺍﻟﻨﮩﺎﯾﮧ>
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#faizan

Friday 26 July 2019

धनेडा की मस्जिद

"धनेडा की मस्जिद"
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बादशाह औरंगज़ेब  काशी  बनारस  की  एक  ऐतिहासिक  मस्जिद
(धनेडा की मस्जिद)  यह  एक  ऐसा  इतिहास  है  जिसे  पन्नो  से  तो  हटा  दिया  गया  है  लेकिन  निष्पक्ष  इन्सान  और  हक़  परस्त 
लोगों  के  दिलो  से  (चाहे वो किसी भी कौम का इन्सान हो) मिटाया 
नहीं जा सकता, और क़यामत
तक मिटाया नहीं जा सकेगा।
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बादशाह औरंगजेब आलमगीर की हुकूमत में काशी बनारस में
एक पंडित की लड़की थी जिसका नाम शकुंतला था,
उस लड़की को एक जाहिल सेनापति ने अपनी
हवस का शिकार बनाना चाहा, और उसके बाप से कहा कि तेरी
बेटी को डोली में सजा कर मेरे महल पे 7 दिन में भेज
देना।
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पंडित ने यह बात अपनी बेटी से कही,
उनके पास कोई रास्ता नहीं था और पंडित से बेटी ने कहा के
1 महीने का वक़्त ले लो कोई भी रास्ता निकल जायेगा…।
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पंडित ने सेनापति से जाकर कहा कि, “मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं 7 दिन में सजाकर लड़की को भेज सकूँ, मुझे महीने का वक़्त दो.”
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सेनापति ने कहा “ठीक है! ठीक
महीने के बाद भेज देना”
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पंडित ने अपनी लड़की से जाकर कहा “वक़्त मिल गया है अब?”
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लड़की ने
मुग़ल शहज़ादे का लिबास पहना और अपनी सवारी को लेकर
दिल्ली की तरफ़ निकल गई, कुछ दिनों के बाद दिल्ली पहुँची,
वो दिन जुमे का दिन था, और जुमे के दिन औरंगजेब आलमगीर
नमाज़ के बाद जब मस्जिद से बहार निकलते तो लोग अपनी
फरियाद एक चिट्ठी में लिख कर मस्जिद की सीढियों के दोनों
तरफ़ खड़े रहते, और हज़रत औरंगजेब आलमगीर वो चिट्ठियाँ
उनके हाथ से लेते जाते, और फिर कुछ दिनों में फैसला (इंसाफ)
फरमाते, 
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वो लड़की (शकुंतला) भी इस क़तार में जाकर खड़ी हो गयी,
उसके चहरे पे नकाब था, और लड़के का लिबास (ड्रेस) पहना हुआ था,
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जब उसके हाथ से चिट्ठी लेने की बारी आई तब हज़रत
औरंगजेब आलमगीर ने अपने हाथ पर एक कपडा डालकर
उसके हाथ से चिट्ठी ली…
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तब वो बोली महाराज! मेरे साथ
यह नाइंसाफी क्यों? सब लोगों से आपने सीधे
तरीके से चिट्ठी ली और मेरे पास से हाथों पर
कपडा रख कर ???
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तब औरंगजेब आलमगीर ने फ़रमाया के इस्लाम में ग़ैर मेहरम
(पराई औरतों) को हाथ लगाना भी हराम है…
और मैं जानता हूँ तू लड़का नहीं लड़की है…
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शकुंतला बादशाह के साथ कुछ दिन तक ठहरी,
और अपनी फरियाद सुनाई,
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बादशाह हज़रत औरंगजेब आलमगीर ने उससे कहा “बेटी! तू लौट जा तेरी डोली सेनापति के महल पहुँचेगी अपने
वक़्त पर…”
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शकुंतला सोच में पड गयी के यह क्या?
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वो अपने घर लौटी और उसके बाप पंडित ने पूछा क्या हुआ
बेटी? तो वो बोली एक ही रास्ता था मै
हिन्दोस्तान के बादशाह के पास गयी थी, लेकिन उन्होंने
भी ऐसा ही कहा कि डोली उठेगी,
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लेकिन मेरे दिल में एक उम्मीद की किरण है, वो ये है के
मैं जितने दिन वहाँ रुकी बादशाह ने मुझे 15 बार बेटी कह
कर पुकारा था… 
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और एक बाप अपनी बेटी की
इज्ज़त नीलाम नहीं होने देगा…।
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फिर वह दिन आया जिस दिन शकुंतला की डोली सजधज के
सेनापति के महल पहुँची, सेनापति ने डोली देख के
अपनी अय्याशी की ख़ुशी फकीरों को पैसे लुटाना शुरू किया…।
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जब पैसे लुटा रहा था तब एक कम्बल-पोश फ़क़ीर जिसने अपने चेहरे पे कम्बल ओढ रखी थी… उसने कहा “मैं ऐसा-वैसा फकीर
नहीं हूँ, मेरे हाथ में पैसे दे”,
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उसने हाथ में पैसे दिए और उन्होंने अपने मुह से कम्बल हटा तो सेनापति देखकर हक्का बक्का रह गया क्योंकि उस कंबल में कोई फ़क़ीर नहीं बल्कि औरंगजेब आलमगीर खुद थे…।
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उन्होंने कहा कि तेरा एक पंडित की लड़की की इज्ज़त पे
हाथ डालना मुसलमान हुकूमत पे दाग लगा सकता है,
और औरंगजेब आलमगीर ने इंसाफ फ़रमाया 4 हाथी मंगवाकर सेनापति के दोनों हाथ और पैर बाँध कर अलग अलग दिशा में हाथियों को दौड़ा दिया गया… और सेनापति को चीर दिया गया…
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फिर आपने पंडित के घर पर एक चबूतरा था उस चबूतरे के पास दो रकात नमाज़ नफिल शुक्राने की अदा
की,
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और दुआ कि के, “ऐ अल्लाह! मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ, के तूने मुझे
एक ग़ैर इस्लामिक लड़की की इज्ज़त बचाने के लिए, इंसाफ
करने के लिए चुना…।
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फिर औरंगजेब आलमगीर ने कहा
“बेटी! ग्लास पानी लाना!”
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लड़की पानी लेकर आई, तब आपने फ़रमाया कि:“जिस दिन दिल्ली में मैंने तेरी फरियाद सुनी थी उस दिन से मैंने क़सम खायी थी के जब तक तेरे साथ इंसाफ नहीं होगा पानी नहीं पिऊंगा…।
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”तब शकुंतला के बाप (पंडित जी) और काशी बनारस के दूसरे
हिन्दू जन ने उस चबूतरे के पास एक मस्जिद तामीर की, जिसका नाम “धनेडा की मस्जिद” रखा गया…
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और पंडितों ने ऐलान किया के ये बादशाह औरंगजेब आलमगीर के इंसाफ की ख़ुशी में हमारी तरफ़ से इनाम है…
और सेनापति को जो सजा दी गई वो इंसाफ़ एक सोने की तख़्त पर
लिखा गया था जो आज भी धनेडा की मस्जिद में मौजूद है।
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दुआ की दरख़्वास्त

Tuesday 26 February 2019

कलाम हज़रत ख़्वाजा अज़ीज़ उल हसन "मजज़ूब" (रहमतुल्लाह अलैह)

इबरत

..जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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जहाँ में हैं इबरत के हर सू नमूने,
मगर तुझ को अंधा किया रंगो बू नें,
कभी गौर से भी, ये देखा है तूने,
जो आबाद थे वो महल अब हैं सूने।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है।।
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मिले ख़ाक़ में अहले शाँ कैसे कैसे,
मकीं हो गए ला मकाँ कैसे कैसे,
हुए नामवर बे निशाँ कैसे कैसे,
ज़मीं खा गई नौजवाँ कैसे कैसे ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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अजल ने न किसरा ही छोड़ा न दारा,
इसी से सिकन्दर फातेह भी हारा,
हर इक ले के क्या क्या न हसरत सिधारा,
पड़ा रह गया सब यूँ ही ठाट सारा।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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तुझे पहले बचपन में बरसों खिलाया,
जवानी ने फिर तुझको मजनू बनाया,
बुढ़ापे ने फ़िर आ के क्या क्या सिताया,
अजल तेरा कर दे गी बिल्कुल सफ़ाया ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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यही तुझको धुन है रहूँ सब से बाला,
हो ज़ीनत निराली, हो फ़ैशन निराला,
जिया करता है क्या? युँही मरने वाला,
तुझे हुस्ने ज़ाहिर ने धोख़े में डाला ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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ये दुनिया ए फ़ानी है महबूब तुझको,
हुई वा-ह क्या चीज़ मरग़ूब तुझको,
नहीं अक़्ल इतनी भी मजज़ूब तुझको,
समझ लेना अब चाहिए ख़ूब तुझको।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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कलाम: हज़रत ख़्वाजा अज़ीज़ उल हसन "मजज़ूब" (रहमतुल्लाह अलैह)
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Admin: Mohammad Faizan Raza Khan Warsi