Saturday, 22 December 2018

Fateh Qustuntunia (Istanbul Victory) 29th May 1453

क़ुस्तुन्तुनिया पर मुसलमानों की वो अज़ीमुश्शान फ़तह,
जिसको यूरोप कभी नहीं भूल सका
29 मई, साल 1453 की तारीख. रात के डेढ़ बजे हैं. दुनिया
के एक प्राचीन और एक महान शहर की
दीवारों और गुंबदों के ऊपर चांद तेजी से पश्चिम
की ओर दौड़ा जा रहा है. जैसे उसे किसी ख़तरे का अंदेशा
हो… इस डूबते हुए चांद के धुंधलके में देखने वाले देख सकते हैं कि शहर
की दीवारों के बाहर फौज के दस्ते पक्के इरादे के साथ
इकट्ठे हो रहे हैं. उनके दिल में ये एहसास है कि वे इतिहास के एक निर्णायक बिंदु
पर खड़े हैं.
ये शहर कस्तुनतुनिया है (आज का इस्तांबुल) और दीवारों के बाहर
उस्मानी फौज (तुर्क सेना) आखिरी हल्ला बोलने
की तैयारी कर रही है. उस्मानी
तोपों को शहर की दीवार पर गोले बरसाते हुए 476 दिन
बीत चुके हैं. कमांडरों ने ख़ास तौर पर तीन जगहों पर तोपों
का मुंह केंद्रित रखकर दीवार को जबरदस्त नुक़सान पहुंचाया है.
21 साल के उस्मानी सुल्तान मोहम्मद सानी अप्रत्याशित
रूप से अपने फौज के अगले मोर्चे पर पहुंच गए हैं. उन्होंने ये फैसला कर लिया है
कि आखिरी हमला दीवार के ‘मैसोटीक्योन’
कहलाने वाले बीच के हिस्से पर किया जाएगा जहां कम से कम नौ दरारें
पड़ चुकी हैं और खंदक का बड़ा हिस्सा पाट दिया गया है. सिर पर
भारी पग्गड़ बांधे और स्वर्ण जड़ित लिबास पहने सुल्तान ने अपने
सैनिकों को तुर्की जबान में संबोधित किया, ‘मेरे दोस्तों और बच्चों, आगे
बढ़ो, अपने आप को साबित करने का लम्हा आ गया है.’ इसके साथ ही
नक्कारों, रणभेरी, तबलों और बिगुल के शोर ने रात की
चुप्पी को तार-तार कर दिया, लेकिन इस कान फाड़ते शोर में
भी उस्मानी फौज के गगनभेदी नारे साफ सुनाई
दे रहे थे जिन्होंने किले की दीवार के कमजोर हिस्सों पर
हल्ला बोल दिया था। एक तरफ ज़मीन पर और दूसरी तरफ़
समुद्र में खड़े जहाजों पर तैनात तोपों के दहानों ने आग बरसाना शुरू कर दिया. इस
हमले के लिए बांजिटिनी सैनिक तैयार खड़े थे. लेकिन पिछले डेढ़
महीनों की घेराबंदी ने उनके हौंसले पस्त कर
दिए थे.
बहुत से शहरी भी मदद के लिए दीवार तक
आ पहुंचे थे और उन्होंने पत्थर उठा-उठाकर नीचे इकट्ठा होने वाले
सैनिकों पर फेंकना शुरू कर दिया था. दूसरे लोग अपने-अपने
करीबी गिरिजाघरों की तरफ़ दौड़े और रो-रो कर
प्रार्थना शुरू कर दी. पादरियों ने शहर के विभिन्न चर्चों की
घंटियां पूरी ताकत से बजानी शुरू कर दी
थी जिनकी टन टनाटन ने उन लोगों को भी जगा
दिया जो अभी तक सो रहे थे.
ईसाई धर्म के सभी संप्रदायों के लोग अपने सदियों पुराने मतभेद भुलाकर
एकजुट हो गए और उनकी बड़ी संख्या सबसे बड़े और
पवित्र चर्च हाजिया सोफिया में इकट्ठा हो गई. सुरक्षाकर्मियों ने बड़ी
जान लगाकर उस्मानी फौज के हमले रोकने की कोशिश
की. लेकिन इतालवी डॉक्टर निकोल बारबिरो जो उस दिन शहर
में मौजूद थे.
वे लिखते हैं कि ‘सफेद पगड़ियाँ बांधे हुए हमलावर आत्मघाती दस्ते
बेजिगर शेरों की तरह हमला करते थे और उनके नारे और नगाड़ों
की आवाजें ऐसी थी जैसे उनका संबंध इस
दुनिया से ना हो.’ रोशनी फैलने तक तुर्की
सिपाही दीवार के ऊपर पहुंच गए.
इस दौरान ज्यादातर सुरक्षा कर्मी मारे जा चुके थे और उनका सेनापति
जीववानी जस्टेनियानी गंभीर रूप से
घायल होकर रणभूमि से भाग चुका था. जब पूरब से सूरज की
पहली किरण दिखाई दी तो उसने देखा कि एक तुर्क सैनिक
करकोपरा दरवाजे के ऊपर स्थापित बाजिंटिनी झंडा उतारकर
उसकी जगह उस्मानी झंडा लहरा रहा था। सुल्तान
मोहम्मद सफेद घोड़े पर अपने मंत्रियों और प्रमुखों के साथ हाजिया सोफिया के चर्च
पहुंचे. प्रमुख दरवाजे के पास पहुंचकर वह घोड़े से उतरे और सड़क से एक
मुट्ठी धूल लेकर अपनी पगड़ी पर डाल
दी. उनके साथियों की आंखों से आँसू बहने लगे. 700 साल
के संघर्ष के बाद मुसलमान आखिरकार कस्तुनतुनिया फतह कर चुके थे.
कस्तुनतुनिया की विजय सिर्फ एक शहर पर एक राजा के शासन का
खात्मा और दूसरे शासन का प्रारंभ नहीं था. इस घटना के साथ
ही दुनिया के इतिहास का एक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हुआ
था. एक तरफ 27 ईसा पूर्व में स्थापित हुआ रोमन साम्राज्य 1480 साल तक
किसी न किसी रूप में बने रहने के बाद अपने अंजाम तक
पहुंचा. दूसरी ओर उस्मानी साम्राज्य ने अपना बुलंदियों को
छुआ और वह अगली चार सदियों तक तक तीन
महाद्वीपों, एशिया, यूरोप और अफ्रीका के एक बड़े हिस्से
पर बड़ी शान से हुकूमत करता रहा. 1453 ही वो साल था
जिसे मध्य काल के अंत और नए युग की शुरुआत का बिंदु माना जाता है.
यही नहीं बल्कि कस्तुनतुनिया की विजय को
सैनिक इतिहास का एक मील का पत्थर भी माना जाता है
क्योंकि उसके बाद ये साबित हुआ कि अब बारूद के इस्तेमाल और बड़ी
तोपों की गोलाबारी के बाद दीवारें किसी
शहर की सुरक्षा के लिए काफी नहीं है.
शहर पर तुर्कों के कब्जे के बाद यहां से हजारों संख्या यूनानी बोलने
वाले लोग भागकर यूरोप और खास तौर से इटली के विभिन्न शहरों में जा
बसे. उस समय यूरोप अंधकार युग से गुज़र रहा था और प्राचीन
यूनानी सभ्यता से कटा हुआ था. लेकिन इस दौरान कस्तुनतुनिया में
यूनानी भाषा और संस्कृति काफी हद तक बनी
रही थी।
यहां आने वाले मोहाजिरों के पास हीरे जवाहरात से भी
बेशकीमती खजाना था. अरस्तू, अफलातून (प्लेटो),
बतलिमूस, जालिनूस और फिलॉसफर विद्वान के असल यूनानी नुस्खे उनके
पास थे. इन सब ने यूरोप में प्राचीन यूनानी ज्ञान को फिर
से जिंदा करने में जबरदस्त किरदार अदा किया. इतिहासकारों के मुताबिक
उन्हीं से यूरोप के पुनर्जागरण की शुरुआत हुई जिसने
आने वाली सदियों में यूरोप को बाकी दुनिया से आगे ले जाने में
मदद दी. जो आज भी बरकरार है. फिर भी
नौजवान सुल्तान मुहम्मद को, जिसे आज दुनिया सुल्तान मोहम्मद फातेह के नाम से
जानती है, 29 मई की सुबह जो शहर नज़र आया था, ये
वो शहर नहीं था जिसकी शानोशौकत के अफसाने उसने
बचपन से सुन रखे थे. लंबी गिरावट के दौर के बाद बांजिटिनी
सल्तनत आखिरी सांसे ले रही थी और
कुस्तुनतिया जो सदियों तक दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे मालदार शहर रहा था,
अब उसकी आबादी सिकुड़ कर चंद हज़ार रह गई
थी. और शहर के कई हिस्से वीरानी के कारण
एक दूसरे से कटकर अलग-अलग गांवों में तब्दील हो गए थे. कहा जाता
है कि नौजवान सुल्तान ने शहर के बुरे हालात को देखते हुए शेख सादी
का कहा जाने वाला एक शेर पढ़ा जिसका अर्थ है… “उल्लू, अफरासियाब के
मीनारों पर नौबत बजाया जाता है… और कैसर के महल पर
मकड़ी ने जाले बुन लिए हैं…”
कस्तुनतुनिया का प्राचीन नाम बाजिंटिन था. लेकिन जब 330
ईस्वी में रोमन सम्राट कॉन्सटेंटाइन प्रथम ने अपनी
राजधानी रोम से यहाँ स्थानांतरित की तो शहर का नाम बदल
कर अपने नाम के हिसाब से कौंस्टेन्टीनोपल कर दिया, (जो अरबों के यहां
पहुँच कस्तुनतुनिया बन गया).
पश्चिम में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ये राज्य कस्तुनतुनिया में बना रहा और
चौथी से 13वीं सदी तक इस शहर ने विकास
की वो कामयाब सीढ़ियां तक की कि इस दौरान
दुनिया का कोई और शहर उसकी बराबरी का दावा
नहीं कर सकता था. यही कारण है कि मुसलमान शुरू से
ही इस शहर को जीतने का ख्वाब देखते आए थे.
इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने की खातिर कुछ
शुरुआती कोशिशों की नाकामी के बाद 674
ईस्वी में एक जबरदस्त नौसैनिक बेड़ा तैयार कर कस्तुनतुनिया
की ओर रवाना कर दिया गया. इस बेड़े ने शहर के बाहर डेरा डाल दिए
और अगले चार साल तक लगातार दीवार पार करने की कोशिश
की जाती रही.
आखिर 678 ईस्वी में बांजिटिनी जहाज शहर से बाहर
निकले और उन्होंने आक्रामणकारी अरबों पर हमला कर दिया. इस बार
उनके पास एक जबरदस्त हथियार था, जिसे ‘ग्रीक फायर’ कहा जाता था.
इसका ठीक-ठीक फॉर्मूला आज तक मालूम
नहीं हो सका लेकिन ये ऐसा ज्वलनशील पदार्थ था जिसे
तीरों की मदद से से फेंका जाता था
कस्तुनतुनिया की घेराबंदी और ये कश्तियों और जहाजों से
चिपक जाता था. इसके अलावा पानी डालने से इसकी आग
और भड़कती थी. इस आपदा के लिए अरब तैयार
नहीं थे. इसलिए देखते ही देखते सारे नौसैनिक बेड़े आग के
जंगल में बदल गए. सैनिक जान बचाने के लिए पानी में कूद गए. लेकिन
यहां भी पनाह नहीं मिली क्योंकि
ग्रीक फायर पानी की सतह पर गिरकर
भी जल रहे थे और ऐसा लगता था कि पूरे समुद्र में आग लग गई है.
अरबों के पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था. वापसी में
एक भयानक समुद्री तूफान ने रही सही कसर
भी पूरी कर दी और सैंकड़ों कश्तियों में बस
एक आध ही बचकर लौटने में कामयाब हो पाए.
इस घेराबंदी के दौरान प्रसिद्ध सहाबी अबू अय्यूब
अंसारी ने भी अपनी ज़िंदगी कुर्बान
कर दी. उनका मकबरा आज भी शहर की
दीवार के बाहर है. सुल्तान मोहम्मद फातेह ने यहां एक मस्जिद बनाई
थी जिसे तुर्क पवित्र स्थान मानते हैं. उसके बाद 717
ईस्वी में बनु उमैया के अमीर सुलेमान बिन अब्दुल मलिक ने
बेहतर तैयारी के साथ एक बार फिर कस्तुनतुनिया की
घेराबंदी की लेकिन इसका भी अंजाम अच्छा
नहीं हुआ और दो हज़ार के करीब नौसेना की
जंगी कश्तियों में से सिर्फ पांच बचकर वापस आने में कामयाब हो पाए.
राजधानी अदर्ना से कस्तुनतुनिया शायद यही कारण था कि
इसके बाद छह शताब्दियों तक मुसलमानों ने कस्तुनतुनिया की तरफ रुख
नहीं किया. लेकिन सुल्तान मोहम्मद फातेह ने अंत में शहर पर अपना
झंडा लहराकर सारे पुराने बदले चुका दिए. शहर पर कब्जा जमाने के बाद सुल्तान ने
अपनी राजधानी अदर्ना से कस्तुनतुनिया कर ली
और खुद अपने लिए कैसर-ए-रोम की उपाधि धारण की.
आने वाले दशकों में उस शहर ने वो उरूज देखा जिसने एक बार फिर
प्राचीन काल की याद ताजा करा दी. सुल्तान ने
अपने सल्तनत में फरमान भेजा, ‘जो कोई चाहे, वो आ जाए, उसे शहर में घर और
बाग मिलेंगे…’ सिर्फ यही नहीं, उन्होंने यूरोप से
भी लोगों को कस्तुनतुनिया आने की दावत दी ताकि
फिर से शहर बस जाए. इसके अलावा, उन्होंने शहर के क्षतिग्रस्त
बुनियादी ढांचे का पुनर्निर्माण किया, पुरानी नहरों
की मरम्मत की और जल निकासी व्यवस्था को
सुधारा. उन्होंने बड़े पैमाने पर नए निर्माण का सिलसिला शुरू किया जिसकी
सबसे बड़ी मिसाल तोपकापी महल और ग्रैंड बाजार है.
जल्द ही तरह-तरह के शिल्पकार, कारीगर,
व्यापारी, चित्रकार, कलाकार और दूसरे हुनरमंद इस शहर का रुख करने
लगे. सुल्तान फातेह ने हाजिया सोफिया को चर्च से मस्जिद बना दिया. लेकिन उन्होंने
शहर के दूसरे बड़े गिरिजाघर कलिसाय-ए-हवारियान को यूनानी
रूढ़िवादी संप्रदाय के पास ही रहने दिया और ये संप्रदाय एक
संस्था के रूप में आज भी कायम है।
यूनान का मनहूस दिन सुल्तान फातेह के बेटे सलीम के दौर में
उस्मानी सल्तनत ने खिलाफत का दर्जा हासिल कर लिया और
कस्तुनतुनिया उसकी राजधानी बनी और मुस्लिम
दुनिया के सारे सुन्नियों का प्रमुख शहर बन गया. सुल्तान फातेह के पोते सुलेमान
आलीशान के दौर में कस्तुनतुनिया ने नई ऊंचाइयों को छुआ.
ये वही सुलेमान हैं जिन्हें मशहूर तुर्की नाटक ‘मेरा
सुल्तान’ में दिखाया गया है. सुलेमान आलीशान की मलिका
खुर्रम सुल्तान ने प्रसिद्ध वास्तुकार सनान की सेवा ली,
जिन्होंने रानी के लिए एक आलीशान महल बनाया. सनान
की दूसरी प्रसिद्ध इमारतों में सुलेमानिया मस्जिद, खुर्रम
सुल्तान हमाम, खुसरो पाशा मस्जिद, शहजादा मस्जिद और दूसरी इमारतों
शामिल हैं.
यूरोप पर कस्तुनतुनिया के पतन का गहरा असर पड़ा था और वहां इस सिलसिले में
कई किताबें और नजमें लिखी गई थीं और कई पेटिंग्स बनाई
गईं जो लोगों की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन गईं. यही
कारण है कि यूरोप इसे कभी नहीं भूल सका.
नैटो का अहम हिस्सा होने के बावजूद, यूरोपीय संघ सदियों पुराने जख्मों
के कारण तुर्की को अपनाने से आनाकानी से काम लेता है.
यूनान में आज भी गुरुवार को मनहूस दिन माना जाता है. वो
तारीख 29 मई 1453 को गुरुवार का ही दिन था।