Tuesday 26 February 2019

कलाम हज़रत ख़्वाजा अज़ीज़ उल हसन "मजज़ूब" (रहमतुल्लाह अलैह)

इबरत

..जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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जहाँ में हैं इबरत के हर सू नमूने,
मगर तुझ को अंधा किया रंगो बू नें,
कभी गौर से भी, ये देखा है तूने,
जो आबाद थे वो महल अब हैं सूने।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है।।
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मिले ख़ाक़ में अहले शाँ कैसे कैसे,
मकीं हो गए ला मकाँ कैसे कैसे,
हुए नामवर बे निशाँ कैसे कैसे,
ज़मीं खा गई नौजवाँ कैसे कैसे ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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अजल ने न किसरा ही छोड़ा न दारा,
इसी से सिकन्दर फातेह भी हारा,
हर इक ले के क्या क्या न हसरत सिधारा,
पड़ा रह गया सब यूँ ही ठाट सारा।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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तुझे पहले बचपन में बरसों खिलाया,
जवानी ने फिर तुझको मजनू बनाया,
बुढ़ापे ने फ़िर आ के क्या क्या सिताया,
अजल तेरा कर दे गी बिल्कुल सफ़ाया ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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यही तुझको धुन है रहूँ सब से बाला,
हो ज़ीनत निराली, हो फ़ैशन निराला,
जिया करता है क्या? युँही मरने वाला,
तुझे हुस्ने ज़ाहिर ने धोख़े में डाला ।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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ये दुनिया ए फ़ानी है महबूब तुझको,
हुई वा-ह क्या चीज़ मरग़ूब तुझको,
नहीं अक़्ल इतनी भी मजज़ूब तुझको,
समझ लेना अब चाहिए ख़ूब तुझको।
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जगह जी लगाने की दुनिया नहीं है
ये इबरत की जा है तमाशा नहीं है ।।
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कलाम: हज़रत ख़्वाजा अज़ीज़ उल हसन "मजज़ूब" (रहमतुल्लाह अलैह)
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Admin: Mohammad Faizan Raza Khan Warsi